थर्मन शनमुगरत्नम: भारतीय मूल के अर्थशास्त्री बने सिंगापुर के राष्ट्रपति

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DMT : सिंगापुर  : (02 सितंबर 2023) : –

सिंगापुर की जनता ने अपने नए राष्ट्रपति के तौर पर भारतीय मूल के थर्मन शनमुगरत्नम को चुना है. हालांकि वहां के कई लोग उनके राष्ट्रपति चुने जाने से निराश भी हैं.

शुक्रवार को थर्मन ने रिकॉर्ड 70.4 फ़ीसदी वोट हासिल कर चुनावों में आसान जीत हासिल की.

करीब एक दशक से ज़्यादा वक़्त के दौरान कोई चुनाव इस कदर विवाद में नहीं रहा. थर्मन ने इसमें दो उम्मीदवारों को हराकर भारी बहुमत से जीत हासिल की है. थर्मन मंत्री रह चुके हैं.

इस बार के चुनावों में वो पहले ही स्पष्ट रूप से बढ़त ले चुके थे. सिंगापुर के लोगों में उनकी छवि एक अच्छे वक्ता, एक बुद्धिमान व्यक्ति और शहरी नेता की है. वो सिंगापुर के सबसे जानेमाने राजनेताओं में से भी एक हैं.

यही कारण है कि जब थर्मन शनमुगरत्नम ने सत्ताधारी पीपल्स एक्शन पार्टी (पीएपी) से अलग हो कर राष्ट्रपति चुनाव में बतौर उम्मीदवार खड़े होने का फ़ैसला किया तो कई लोगों को आश्चर्य हुआ. कइयों ने ये कहकर उनके फ़ैसले की आलोचना की कि वो अपनी क्षमता को बर्बाद कर रहे हैं.

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थर्मन शनमुगरत्नम को राष्ट्रपति चुने जाने पर बधाई दी.

उन्होंने कहा, “भारत और सिंगापुर के द्विपक्षीय रिश्तों को और मज़बूत करने की दिशा में आपके साथ काम करने मुझे खुशी होगी.”

कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने भी उन्हें मुबारकबाद दी है.

उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, “सिंगापुर का राष्ट्रपति चुने जाने पर दोस्त थर्मन शनमुगरत्नम को बधाई. सिंगापुर के कई नेता हमारे अच्छे मित्र और शुभचिंतक हैं, इनमें थर्मन सबसे बेहतर हैं. मुझे उम्मीद है कि वो जल्द भारत का दौरा करेंगे.”

सिंगापुर में राष्ट्रपति की भूमिका मौटे तौर पर औपचारिक होती है और उन्हें अधिक शक्तियां नहीं दी जातीं. हालांकि सिंगापुर के वित्त भंडार से जुड़ी कुछ ताकत उनके हाथों में ज़रूर होती है. राष्ट्रपति के पास सरकार और सार्वजनिक मामलों में बोलने की शक्ति बेहद सीमित होती है.

सरकार के पास राष्ट्रपति को पद से हटाने की ताकत होती है. यहां की सरकार पहले ही साफ़ कर चुकी है कि राष्ट्रपति पूरी स्वतंत्रता के साथ बात नहीं कर सकते और उनकी भूमिका कुछ वैसी ही रहेगी जैसी ब्रिटेन में महारानी की.

माना जाता है कि ये औपचारिक पद उन नेताओं के लिए सही हो सकता है जो शांत स्वभाव वाले हैं और विवादों से दूर रहना पसंद करते हैं, जैसा कि पहले के कई राष्ट्रपति थे. लेकिन थर्मन का मामला दूसरों से अलग है.

इससे पहले वित्त मंत्री और डिप्टी प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने सिंगापुर के राजनीतिक नेतृत्व की मदद की थी. वो अर्थशास्त्री हैं. वो संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे वैश्विक संगठनों में काम कर चुके हैं. एक वक्त वो भी था जब ये कयास लगाए जा रहे थे कि वो मुद्रा कोष के प्रमुख बन सकते हैं.

राष्ट्रपति पद की रेस में शामिल तीन उम्मीदवार

1. थर्मन शनमुगरत्नम – 70.4 फ़ीसदी वोट

2. आं कोक सॉन्ग -15.7 फ़ीसदी वोट

3. तान किन लियान -13.88 फ़ीसदी वोट

लोकप्रिय नेता

सिंगापुर के कुछ लोगों का मानना था कि अगर थर्मन किसी कारण पीपल्स एक्शन पार्टी का साथ छोड़ते हैं तो वो अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी पहचान बनाएंगे.

कुछ को उम्मीद थी कि वो आगे चलकर प्रधानमंत्री बन सकते हैं. कुछ साल पहले हुए एक सर्वे में कहा गया था कि अगर तत्कालीन प्रधानमंत्री ली सीएन लूंग पद से इस्तीफ़ा देते हैं तो थर्मन प्रधानमंत्री के पद पर लोगों की पहली पसंद होंगे. आम चुनावों में भी ली सीएन लूंग के निर्वाचन क्षेत्र के बाद थर्मन के निर्वाचन क्षेत्र को ही सबसे अधिक वोट मिले थे.

उनकी लोकप्रियता का एक कारण ये रहा कि जहां प्रधानमंत्री ली सीएन लूंग को लोगों की आलोचना सहनी पड़ी, वहीं, डिप्टी प्रधानमंत्री के तौर पर थर्मन सार्वजनिक तौर पर आलोचकों के ज़ुबानी तीरों से बचे रहे.

66 साल के थर्मन अपने लिए एक सज्जन व्यक्ति की छवि बनान में कामयाब रहे और अन्य राजनेताओं की तरह वो राजनीतिक बयानबाज़ी में निजी हमलों में कभी नहीं उलझे. उनका ये रवैया सज्जन राजनेता जैसी छवि को पसंद करने वाली जनता को भा गया.

कई लोगों को लगा वो मिथकों में पाए जाने वाले उस व्यक्ति की तरह हैं जो सिंगापुर में ग़ैर-चीनी मूल का पहला प्रधानमंत्री बन सकता है और जो उस लकीर को पार कर सकता है जिसके बारे में सरकार कहती आई है कि इसे कोई लांघ नहीं सकता.

अपनी नस्लीय राजनीति के लिए जानी जाने वाली सिंगापुर की पीएपी के नेता कई बार ये कहते रहे हैं कि ये एक चीनी बहुसंख्यक देश है जहां के लोग अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को नेतृत्व नहीं करने देंगे.

इस मुद्दे पर थर्मन ने चुनाव के आख़िरी सप्ताह तक चुप्पी साधे रखी. बाद में उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि सिंगापुर अब इसके लिए तैयार है. उनकी इस टिप्पणी ने उनके कई समर्थकों को नाराज़ कर दिया था.

थर्मन की जीत के मायने

थर्मन के बारे में कहा जा रहा है कि वो खुद को प्रधानमंत्री के पद पर नहीं देख रहे थे. खुद उनका कहना था कि वो बेहतर प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. इधर इसी वक्त पीएपी का नया नेतृत्व सामने आने की तैयारी कर रहा था और माना जा रहा था कि थर्मन पार्टी छोड़ने के बारे में विचार कर रहे थे.

एक कहानी ये भी सुनी जा रही है कि पीएपी चाहती थी कि अगली पीढ़ी के नेताओं का नेतृत्व करने के लिए थर्मन राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनें. इसी कारण उन्होंने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना तय किया.

ग़ैर-चीनी मूल के नेता पहले भी सिंगापुर के राष्ट्रपति रहे हैं. हालांकि ये पहला मौका है जब इस पद की दौड़ में प्रतिस्पर्धा के बाद किसी ने जीत हासिल की है.

उनके समर्थक अब ये दावा कर सकते हैं कि उनकी ये जीत प्रतिनिधित्व और नस्लवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ की जीत है. चुनाव अभियान के दौरान कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा गया कि सिंगापुर में चीनी मूल के ही नेता को ही राष्ट्रपति पद पर चुना जाना चाहिए.

चुनावों में थर्मन के दोनों प्रतिद्वंदी, आं कोक सॉन्ग और टान किन लियान चीनी मूल के थे.

एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि उनकी जीत ने पीएपी की नस्लवाद से जुड़ी एक नीति को भी खारिज कर दिया है.

2017 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले सरकार ने ये क़ानून बनाया था कि कुछ चुनाव में सीटें केवल अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं के लिए आरक्षित रखी जाएं. पीएपी की दलील थी कि इससे सिंगापुर में मलय, भारतीय और यूरेशिया मूल के अल्पसंख्यकों को बेहतर प्रतिनिधित्व मिल सकेगा.

ये नियम इस बार लागू नहीं हुए और थर्मन ने एक तरह से साबित कर दिया कि अल्पसंख्यक समुदाय का एक नेता किसी आम नेता की तरह रेस में हिस्सा ले सकता है और भारी बहुमत से जीत सकता है.

इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉलिसी स्टडीज़ में नस्लीय मामलों के एक्सपर्ट मैथ्यू मैथ्यूज़ कहते हैं, “इस लिहाज़ से उनकी जीत नस्लीय संबंधों से जुड़ी अहम जीत है.”

हालांकि वो कहते हैं, “चुनाव के नतीजों से ये अंदाज़ा कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि सिंगापुर के समाज में नस्लीय भेदभाव नहीं है क्योंकि अगर मुक़ाबला बराबरी के नेताओं में होता तो शायद नस्लीय भेदभाव बड़ा फैक्टर होता. इस साल थर्मन के साथ जो दूसरे उम्मीदवार थे उनका करियर थर्मन के मुक़ाबले कम था और वो अधिक लोकप्रिय भी नहीं थे.”

किसका कितना प्रभाव

सिंगापुर में हुए इस बार के राष्ट्रपति चुनावों को पीएपी के लिए एक तरह से जनमतसंग्रह के रूप में देखा जा रहा था, क्योंकि हाल के दिनों में पार्टी कई मुद्दों पर आलोचना झेल रही थी.

लेकिन थर्मन की जीत का श्रेय उनकी निजी लोकप्रियता को जानी चाहिए, न कि पार्टी को क्योंकि उनकी लोकप्रियता पार्टी के नाम से कहीं अधिक थी.

नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर वालिद जमब्लट अब्दुल्ला कहते हैं, “उनकी जीत ये बताती है कि पार्टी से जुड़ा होना किसी के लिए घातक साबित हो, ये ज़रूरी नहीं है.”

फिर भी उनकी जीत पर पीएपी के प्रभाव से जुड़े सवालों का साया पड़ रहा है. माना जाता है कि थर्मन सरकार समर्थित उम्मीदवार हैं. हालांकि उन्होंने जनता से वादा किया है कि वो किसी के प्रभाव के बिना स्वतंत्र रूप से काम करेंगे. लेकिन कई लोग मानते हैं कि पीएपी के बेहद वफादार रहे व्यक्ति से इसकी उम्मीद करना बेमानी है.

चुनावों को लेकर विवाद

ये चुनाव पारदर्शिता की कमी और रोक थाम से जुड़े कदमों के कारण भी विवादों में घिरा रहा था. एक तरफ जॉर्ज गो नाम के एक बेहद लोकप्रिय संभावित उम्मीदवार को पहले ही अयोग्य घोषित कर दिया गया, वहीं टान किन लियान जिन पर महिलाओं से भेदभाव और नस्लवाद के आरोप लगे थे उन्हें चुनाव लड़ने दिया गया.

इस बार के चुनावों ने 2017 में हुए चुनावों की भी याद दिलाई. उस वक्त सरकार ने नियमों में कुछ बदलाव किए जिसे लेकर लोगों में नाराज़गी देखी गई और विवाद हुआ.

थर्मन की जीत ने इस धारणा को और गहरा कर दिया है कि राष्ट्रपति पद की रेस में सरकार हस्तक्षेप कर रही है. यहां तक ​​कि सिंगापुर में एक आंदोलन ये भी चला जिसमें नागरिकों से कहा गया कि वो अपना मतपत्र ख़राब कर अपना विरोध जताएं.

हालांकि वालिद कहते हैं, “आख़िर में इसका आंकड़ा क़रीब दो फीसदी के आसपास था, जिसका मतलब ये है कि अधिकांश लोगों ने माना कि ये चुनाव वैध हैं और उन्हें इनमें हिस्सा लेना चाहिए.”

थर्मन ने अपने चुनावी अभियान में “सभी के लिए सम्मान” का वादा किया और कहा कि “अलग-अलग विचारों और अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा को मानने वालों का भी सम्मान किया जाना चाहिए.”

लेकिन अब तक ये तय नहीं है कि राष्ट्रपति के तौर पर वो अपने किए वादों को कैसे पूरा करेंगे, ख़ासकर तब जब सिस्टम के बारे में माना जाता है कि ये पीएपी की ताकत को बनाए रखने में मददगार है. और तब जब ये वह सिस्टम है जिसे कभी सरकार में रहते हुए उन्होंने ही आकार देने में मदद की थी.

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