दुनिया पर परमाणु हमले का ख़तरा कितना मंडरा रहा है ?

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DMT : यूक्रेन  : (16 जुलाई 2023) : –

इस साल जून में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने घोषणा कर दी थी कि उन्होंने परमाणु हथियारों की पहली खेप बेलारूस में तैनाती के लिए भेज दी है.

यूक्रेन युद्ध की शुरुआत से ही वो परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी दे रहे थे. लेकिन यह तैनाती पहली ठोस कार्यवाही है.

यह परमाणु हथियार बेलारूस में यूक्रेन की सीमा के पास तैनात किए जा रहे हैं जहां से नेटो के पोलैंड और लिथुआनिया जैसे देशों को भी निशाना बनाया जा सकता है.

साथ ही ऐसे मिसाइल और लड़ाकू विमान भी भेजे गए हैं जो 500 किलोमीटर की दूरी तक परमाणु हथियारों से हमले कर सकते हैं.

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने इसे ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकत करार दिया. रूस ने यूक्रेन के ज़ापोरिज़िया परमाणु पॉवर प्लांट पर भी कब्ज़ा कर रखा है.

मगर वर्तमान बहुध्रुवीय विश्व में केवल रूसी राष्ट्रपित पुतिन की धमकियां ही चिंता का कारण नहीं हैं बल्कि चीन भी परमाणु हथियारों के उत्पादन में अमेरिका और रूस के साथ बराबरी चाहता है.

सब जगह हथियार नियंत्रण संधियों की मियाद ख़त्म हो रही है और नए समझौते नहीं हो पाए हैं.

दुनिया जहान के इस अंक में हम यही जानने की कोशिश करेंगे के क्या विश्व में परमाणु हमले का ख़तरा बढ़ता जा रहा है?

रूस का न्यूक्लियर ब्लैकमेल

रूस कह चुका है कि अगर उसकी संप्रभुता और अस्तित्व को ख़तरा हुआ तो निस्संदेह, संभावना है कि वो परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है.

रूस के पास हज़ारों परमाणु हथियार हैं जिनमें कई ऐसे छोटे टैक्टिकल न्यूक्लियर वारहेड भी हैं, जिनका इस्तेमाल रणभूमि में किया जा सकता है. इनमें कुछ टैक्टिकल परमाणु हथियार उस बम जितने शक्तिशाली हैं जिसका इस्तेमाल हिरोशिमा में किया गया था.

रूस द्वारा बेलारूस में परमाणु हथियारों की तैनाती कितनी बड़ी चिंता का विषय है यह समझने के लिए हमने बात कि निकोलाई सोकोव से जो पहले रूस के परमाणु वार्ताकार थे और अब विएना सेंटर फ़ॉर डिसआर्मामेंट एंड नॉन प्रोलिफ़रेशन में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं.

उन्होंने कहा कि यह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल पर रूस के रुख़ में आए परिवर्तन का संकेत है, “रूस मे परमाणु हथियारों के सीमित इस्तेमाल को लेकर सार्वजानिक तौर पर विशेषज्ञों के बीच बहस चल रही है. मगर यह रूसी सरकार की सोच को ही दर्शाती है. यह एक गंभीर बात है.”

निकोलाई सोकोव का मानना है कि इन हथियारों की तैनाती से यूक्रेन से भी ज़्यादा ख़तरा नेटो के सदस्य देशों को है.

निकोलाई सोकोव के अनुसार, “हमें समझना चाहिए की यूक्रेन के ख़िलाफ़ लड़ाई को रूस में एक प्रॉक्सी वॉर की तरह देखा जा रहा है. वहां इसे यूक्रेन की आड़ में नेटो के ख़िलाफ़ लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है. कई लोग सोच रहे हैं कि रूस यूक्रेन पर परमाणु हमला कर सकता है.”

“मगर मेरी राय उससे अलग है. मुझे लगता है कि इसकी संभावना ना के बराबर है. मुझे इस बात की चिंता है कि रूस नेटो के साथ संघर्ष को इस हद तक बढ़ा सकता है कि परमाणु संघर्ष की नौबत आ सकती है.”

इस ख़तरे को पश्चिमी देशों में गंभीरता से लिया जा रहा है. लेकिन व्लादिमीर पुतिन, संघर्ष को इस सीमा तक कैसे ले जाएंगे?

निकोलाई सोकोव का कहना है, “हमला अचानक नहीं होगा. पहले छोटे संघर्ष होंगे जिनमें पारंपरिक हथियारों का इस्तेमाल होगा. इसमें नेटो के उन ठिकानों को निशाना बनाया जा सकता है जिनका यूक्रेन युद्ध से संबंध है.”

“इस पर नेटो की क्या प्रतिक्रिया होती है, इससे तय होगा कि संघर्ष कितना बढ़ सकता है. रूस परमाणु परीक्षण भी कर सकता है, जो कि नेटो के लिए एक कड़ा संदेश होगा. पोलैंड पर परमाणु हमले के ख़तरे को बढ़ाया जा सकता है. फ़िलहाल संदेश के आदान-प्रदान का खेल चल रहा है. लेकिन यह स्थिति विस्फोटक हो सकती है.”

निकोलाई सोकोव का कहना है कि ‘रूस संघर्ष को इस कदर बढ़ा देना चाहता है कि परमाणु संघर्ष का ख़तरा पैदा हो जाए और नेटो इससे डर कर पीछे हट जाए. यह एक न्यूक्लियर ब्लैकमेल है.’

तो सवाल उठता है कि विश्व इस न्यूक्लियर ब्लैकमेल से कैसे निपटेगा?

चीन की बढ़ती भूमिका और तीन धुरों वाली दुनिया

रूस की परमाणु धमकी पर अमेरिका की प्रतिक्रिया काफ़ी नपी-तुली थी. हालांकि अमेरिकी प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि ऐसा नहीं लगता कि रूस परमाणु हमले की तैयारी कर रहा है.

मगर राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि ‘यह एक वास्तविक ख़तरा’ है.

अमेरिका के वुड्रो विल्सन इंटरनैशनल सेंटर फ़ॉर स्कॉलर्स में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा विभाग के निदेशक रॉबर्ट लिटवाक का कहना है कि “अमेरिकी प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर रूस परमाणु हथियार का इस्तेमाल करता है तो उसे गंभीर परिणाम झेलने पड़ेंगे.”

वो कहते हैं, “बाइडन सरकार ने यह भी कहा है कि रूस छोटे टैक्टिकल परमाणु हथियार का इस्तेमाल करे या बड़े बम का. अमेरिका के लिए दोनों का इस्तेमाल एक समान है. और वो इसे परमाणु हमले की तरह ही देखेगा.”

और यही बात रूस द्वारा यूक्रेन के ज़ापोरिज़िया परमाणु पॉवर प्लांट पर किए गए कब्ज़े पर भी लागू होती है. यह प्लांट पिछले लगभग एक साल से रूस के कब्ज़े में है.

यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने कहा है कि रूस ने वहां बारूदी सुरंगें बिछा दी हैं. वहीं अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की रिपोर्टों के अनुसार, इस प्लांट के पास कई बार बमबारी की वारदातें हुईं हैं.

रॉबर्ट लिटवाक के मुताबिक़, “रूस द्वारा परमाणु हथियार के इस्तेमाल के बारे में अमेरिका पहले ही कह चुका है कि अगर रूस ऐसा करता है तो उसके गंभीर परिणाम होंगे.”

“मेरी राय में अगर रूस की वजह से इस पॉवर प्लांट में कोई हादसा होगा तो अमेरिका उसे परमाणु हमले की तरह ही देखेगा और उसी अनुसार कार्रवाई करेगा.”

मगर क्या कोई पुतिन की परमाणु धमकियों पर रोक लगा सकता है? कुछ लोग उम्मीद करते हैं कि चीन के नेता शी जिनपिंग यह भूमिका निभा सकते हैं. क्योंकि चीन ‘नो फ़र्स्ट यूज़’ की नीति की बात कर चुका है. यानि यह कह चुका है कि वो संघर्ष के दौरान पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं करेगा.

रॉबर्ट लिटवाक कहते हैं, “अमेरिका ने चीन पर दबाव डाला है कि वह रूस को ऐसे हथियार ना सौंपे जिनका इस्तेमाल यूक्रेन के ख़िलाफ़ हो. शी जिनपींग पुतिन से मिले हैं और वहां भारतीय प्रधानमंत्री मोदी भी थे. मुझे लगता है इन दोनों नेताओं ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार के परमाणु हथियार के इस्तेमाल का विरोध किया. इससे रूस पर थोड़ा अंकुश लगा है.”

दूसरे महायुद्ध के बाद परमाणु हथियारों के इस्तेमाल पर रोकथाम के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते हुए थे. लेकिन उनकी मियाद अब ख़त्म हो चुकी है और नए समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं हो पाए हैं.

लिटवाक कहते हैं कि उस समय दो महाशक्तियां थीं और द्विपक्षीय समझौतों के ज़रिए संघर्ष को नियंत्रण में रखा जा सकता था.

“लेकिन अब चीन भी एक महाशक्ति है और दुनिया तीन ध्रुवों वाली हो गयी है. इस वजह से नयी चुनौतियां भी उत्पन्न हुई हैं. संघर्ष बढ़ने की संभावनाएं व्यापक होती गयी हैं. मिसाल के तौर पर यूरोप की सुरक्षा की दृष्टि से यूक्रेन महत्वपूर्ण है. उत्तर पूर्वी एशिया में यही स्थिति ताइवान और चीन के बीच है.”

जहां तक चीन का सवाल है, वो 1964 में ही परमाणु शक्ति बन चुका था, लेकिन अब वो एक परमाणु महाशक्ति बनता जा रहा है जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय संतुलन और व्यवस्था में पेचीदगी बढ़ती जा रही है.

परमाणु हथियार को लेकर चीन की रेस

हेनरिक हीम जो नॉर्वेइयन डिफ़ेंस इंस्टिट्यूट में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. उनका कहना है कि अब कई देश अपनी प्रतिरक्षा नीति में परमाणु हथियारों को कहीं ज़्यादा महत्व देने लगे हैं.

यह एशिया में तेज़ होती दिख रही है. उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण ही नहीं लेकिन चीन की परमाणु नीति से भी अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के लिए चुनौती बढ़ गई है.

“पारंपरिक तौर पर अमेरिका और चीन के बीच संबंधों में परमाणु हथियारों की विशेष भूमिका नहीं रही है. लेकिन अब चीन अपने परमाणु हथियारों का विस्तार कर रहा है, जिससे दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता तेज़ हो गयी है.”

“चीन ने तीन साल पहले परमाणु हथियार कार्यक्रम को बढ़ा दिया था जिसका पता 2021 में चला. शोधकर्ताओं ने पाया कि पश्चिमी चीन में तीन जगहों पर मिसाइल ‘सायलो फ़ील्ड’ बनायी गयी हैं. हर जगह पर 100 से अधिक ‘सायलो’ यानि भूमिगत इमारतें या ढांचे बनाए गए हैं. इसके बाद से परमाणु हथियारों के भविष्य और अमेरिका और चीन के संबंधों को लेकर चर्चा गर्म हो गई.”

कुछ अनुमानों के अनुसार, चीन के पास फ़िलहाल 200 से 300 के बीच परमाणु हथियार हैं जबकि अमेरिका ने लगभग 1500 परमाणु हथियार तैनात कर रखे हैं.

यह माना जा रहा है कि आने वाले 10-12 सालों के भीतर चीन के परमाणु हथियारों की संख्या अमेरिका के बराबर हो जाएगी.

हेनरिक हीम के अनुसार, “चीन अपने परमाणु कवच को अधिक मज़बूत करना चाहता है ताकि ज़रूरत पड़ने पर ताइवान के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्यवाही की जा सके. ठीक वैसे ही जैसे रूस यूक्रेन में कर रहा है.”

लेकिन वो यह भी कहते हैं कि इसे देखने का दूसरा नज़रिया यह है कि अमेरिका के परमाणु हथियारों और दूसरे अत्याधुनिक हथियारों को ध्यान में रखते हुए चीन, अमेरिका के साथ किसी भी संघर्ष का सामना करने की क्षमता प्राप्त करना चाहता है. ताकि अगर अमेरिका चीन के ख़िलाफ़ पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल कर दे तो चीन जवाबी हमला कर सके.

चीन के परमाणु हथियार कार्यक्रम के विस्तार को देखते हुए यह चिंता भी व्यक्त की जा रही है कि संभवत: चीन अपनी ‘नो फ़र्स्ट स्ट्राइक डॉक्ट्रिन’ यानि पहले परमाणु हमला ना करने की नीति, त्यागने की तैयारी कर रहा हो.

चीन की यह परमाणु नीति 1960 के दशक से कायम है. इस बारे में कोई आधिकारिक समझौता नहीं हुआ है. बल्कि यह उसका एकतरफ़ा आश्वासन रहा है.

हेनरिक हीम ने कहा, “अमेरिका और रूस ने कभी इस प्रकार की ‘नो फ़्रर्स्ट स्ट्राइक’ नीति की घोषणा नहीं की है. अमेरिका और रूस दोनों ने कुछ विशेष परिस्थितियों में परमाणु हथियार पहले इस्तेमाल करने का विकल्प कायम रखा है.”

अमेरिका और रूस के बीच परमाणु हथियारों के नियंत्रण संबंधी कई वार्ताएं होती रही हैं. दोनों देशों के बीच ऐसी वार्ताओं के लिए व्यवस्था बनी हुई है मगर अमेरिका और चीन के बीच ऐसी कोई बातचीत नहीं हुई है. और ना ही नज़दीकी भविष्य में ऐसी वार्ताएं होने के संकेत हैं.

सहयोग की उम्मीद

इस साल की शुरुआत में रूस ने कह दिया था कि वो नयी START (Strategic Arms Reduction Treaty) संधि में शामिल नहीं होगा.

इस समझौते के चलते दस साल से अधिक समय तक, अमेरिका और रूस के बीच लंबी दूरी तक मार करने वाले परमाणु हथियारों पर नियंत्रण बना हुआ था.

नये समझौते के लिए वार्ताओं की संभावना कम लग रही है. ऐसे में स्थिति कितनी नाज़ुक हो चुकी है यह समझने के लिए हमने बात की रोज़ गौटेमोलर से.

वो नेटो की उपमहासचिव रह चुकी हैं और फ़िलहाल अमेरिका की स्टैनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के स्पॉग्ली इंस्टिट्यूट फ़ॉर इंटरनैशनल स्टडीज़ में वरिष्ठ शोधकर्ता हैं. वो कहती हैं कि संधि के प्रावधानों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ तो नहीं किया जा रहा है.

“रूस ने नयी ‘स्टार्ट’ संधि पर अमल करना बंद कर दिया है. यानि अब वो परमाणु ठिकानों के निरीक्षण की अनुमति नहीं दे रहा. वो अमेरिका के साथ अपनी परमाणु प्रतिरक्षा का स्टेटस रोज़ाना साझा नहीं कर रहा है.”

“लेकिन रूस ने यह ज़रूर कहा है कि नयी स्टार्ट संधि कायम होने तक वो संधि के प्रावधानों के तहत हथियार नियंत्रण बरकरार रखेगा. यानि वो परमाणु हथियार इस्तेमाल करने वाले सिस्टम यानि मिसाइल और लड़ाकू विमानों की कुल संख्या 700 तक सीमित रखेगा. अमेरिका और रूस, दोनों ने कहा है कि वो परमाणु हथियारों की संख्या फ़िलहाल सीमित रखेंगे.”

रोज़ गौटेमोलर का मानना है कि मौजूदा हालात, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के समय की स्थिति जैसे हैं.

“1991 और 1992 में बड़ा संकट खड़ा हो गया था. अनिश्चितता और अस्थिरता थी. उस समय सोवियत संघ के पास वर्तमान रूस के मुकाबले कहीं ज़्यादा परमाणु हथियार थे. तब हमें चिंता थी कि उनमें से कुछ हथियार ग़ायब हो सकते हैं या आतंकवादियों के हाथ लग सकते हैं.”

“इस समय रूस के पास चार से पांच हज़ार परमाणु हथियार हैं. उस समय अमेरिका और सोवियत संघ के नेताओं के बीच इन ख़तरों को कम करने के लिए सहयोग के प्रयास दिखाई देते थे जो अब दिखाई नहीं देते.”

रूस में परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल को लेकर चर्चा हो रही है. मगर पश्चिमी देशों में यह उम्मीद की जा रही है कि रूस की परमाणु नीति में बदलाव नहीं आएगा.

हालांकि रूस के भीतर अस्थिरता, चिंता की बात है. हाल ही में रूस में वागनर ग्रुप की बगावत भी हुई. ऐसी वारदातें राष्ट्रपति पुतिन की साख़ को चुनौती दे सकती हैं.

ऐसे में सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए वो टैक्टिकल परमाणु हथियार के इस्तेमाल के बारे में सोच सकते हैं.

लेकिन रोज़ गौटेमोलर ने कहा, “मैं यह तो नहीं कह सकती कि वागनर ग्रुप की बगावत की वजह से पुतिन द्वारा टैक्टिकल परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने की संभावना बढ़ जाएगी. मगर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि व्लादिमीर पुतिन ने तीन दिन में दो बार कहा कि रूस गृहयुद्ध की कगार पर आ गया था. अगर गृहयुद्ध छिड़ जाए तो वहां मौजूद परमाणु हथियारों और परमाणु सामग्री के रखरखाव और सुरक्षा को लेकर चिंता स्वाभाविक है.”

मगर क्या चीन के साथ भी परमाणु हथियारों के नियंत्रण के संबंध में बात हो सकती है?

गौटेमोलर का कहना है कि इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि चीन पारदर्शिता नहीं चाहता. वह अपनी परमाणु और अन्य सैन्य क्षमता की जानकारी अमेरिका के साथ साझा नहीं करना चाहेगा क्योंकि उसे संदेह है कि अमेरिका उसकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठा सकता है.

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