नीतीश कुमार के बीजेपी के साथ जाने से क्या डगमगाने लगी है इंडिया गठबंधन की नैया

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DMT : अयोध्या  : (29 जनवरी 2024) : –

22 जनवरी को अयोध्या के राम मंदिर में भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम अभूतपूर्व स्तर पर हुआ.

कई विश्लेषकों को लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘हिंदुत्व के झंडाबरदार’ के रूप में पेश किया गया है. अयोध्या से उठी धार्मिक भावना की लहर देश के अधिकतर हिस्सों में महसूस की गई.

आम चुनाव से कुछ महीने पहले हुए इस कार्यक्रम में विपक्ष के नेता शामिल नहीं हुए. कांग्रेस ने सीधे तौर पर जाने से इनकार कर दिया.

अभी हिंदुत्व की ये लहर शांत उफ़ान पर ही थी कि बिहार में उठी एक और राजनीतिक लहर ने इंडिया गठबंधन को हिला दिया.

नीतीश कुमार ने क्या कहा?

राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने के बाद नीतीश ने कहा, ”सभी दलों को एक साथ हमने लाया लेकिन वहां जो भी काम चल रहा था बहुत स्लो था उससे मन में दुख था. अब हम इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं है. हमने इंडिया गठबंधन छोड़ दिया है.”

नीतीश का जाना इंडिया गठबंधन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है. बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं. यहां नीतीश के साथ रहते इंडिया गठबंधन बीजेपी को मज़बूत चुनौती देने की स्थिति में था.

लेकिन ये इंडिया गठबंधन के लिए पहला झटका नहीं है. कुछ दिन पहले ही ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम बंगाल में सीटों का बंटवारा नहीं होगा और उनकी पार्टी अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.

इंडिया गठबंधन में शामिल आम आदमी पार्टी ने भी ये स्पष्ट कर दिया है कि वह पंजाब में कांग्रेस के साथ सीटों का बंटवारा नहीं करेगी और अकेले ही चुनाव लड़ेगी.

गठबंधन को लग रहे इन झटकों के बीच कांग्रेस नेता शशि थरूर ने एक बयान दिया. उन्होंने कहा कि गठबंधन का ‘मक़सद केंद्र की सत्ता से बीजेपी को हटाना है.’

थरूर ने कहा कि सीटों के बंटवारे को लेकर वार्ताएं चल रही हैं और सीटें बांटने का कोई एक ऐसा एक फार्मूला नहीं है जो सब पर लागू हो.

उन्होंने बताया कि गठबंधन में राज्यवार सीटों के बंटवारे को लेकर वार्ता चल रही है. हर राज्य में सीटों का बंटवारा अलग तरह से होगा.

यूपी में पटरी पर है ‘इंडिया’ गठबंधन?

विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन को लग रहे एक के बाद एक झटकों के बीच उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने शनिवार को संकेत दिए हैं कि राज्य में कांग्रेस के साथ गठबंधन पटरी पर है.

शनिवार को कांग्रेस ने भी स्वीकार किया है कि गठबंधन को झटके लग रहे हैं. हालांकि कांग्रेस ने ये उम्मीद भी ज़ाहिर की है कि ममता के ग़ुस्से को शांत किया जाएगा और बाकी गठबंधन सहयोगियों के साथ भी सीटों को लेकर जल्द समझौते होंगे.

जयराम रमेश ने शनिवार को कहा, “स्थिति बेहतर हो सकती थी, लोग देख रहे हैं, जो दिख रहा है कि एक पार्टी हमसे नाख़ुश है और हमें छोड़कर जा रही है, ये देखना अच्छा नहीं है, इंडिया की छवि के लिए ये अच्छा नहीं है.”

इसे लेकर विश्लेषकों की राय है कि ‘पर्सेप्शन’ की लड़ाई में इंडिया गठबंधन पिछड़ रहा है.

इस घटनाक्रम के बीच नरेंद्र मोदी की बीजेपी के सामने कांग्रेस और सहयोगी दल कमज़ोर नज़र आ रहे हैं.

नीतीश की पार्टी जदयू के अलग होने से पहले ही पार्टी महासचिव केसी त्यागी ने एक बयान में कहा था कि इंडिया गठबंधन टूट रहा है.

नीतीश कुमार के अलग होने के बाद रविवार को त्यागी ने कहा, “कांग्रेस का एक कॉकस इंडिया गठबंधन के नेतृत्व को हड़पना चाहता था. 19 दिसंबर को अशोका होटल में जो बैठक हुई थी उसमें एक साज़िश के तहत इंडिया गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए खड़गे का नाम सुझाया गया था. इससे पहले मुंबई में हुई बैठक में ये सर्वसम्मिति से तय हुआ था कि बिना किसी चेहरे को आगे करके इंडिया गठबंधन काम करेगा. कांग्रेस के कॉकस ने साज़िश के तहत खड़गे जी का नाम सुझाया. जितने भी ग़ैर कांग्रेसी क्षेत्रीय दल हैं, चाहें वो लोकदल, सपा, बसपा, राजद, टीएमसी या अन्य पार्टियां हों, इन्होंने कांग्रेस से लड़कर राजनीति में अपना स्थान बनाया है. कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने के दौर से गुज़र रही है. कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व को समाप्त करना चाहती है.”

विश्लेषक मानते हैं कि इंडिया गठबंधन अपनी तस्वीर साफ़ नहीं कर सका और यही गठबंधन में आ रही दरार का कारण है.

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, “क्या वाकई में इंडिया गठबंधन औपचारिक तौर पर एक गठबंधन बन गया है? क्या ऐसा कोई गठबंधन बन गया है जो विचारधारा, किसी मुद्दे या किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम, सीट शेयरिंग, नेतृत्व को लेकर किसी भी चीज को तय कर पाया है? क्या वह यह माहौल बनाने में अभी तक कामयाब हो पाया है कि वह मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ एक राजनीतिक लड़ाई लड़ना चाहता है?”

“सबसे पहली बात ये है कि गठबंधन पूरी तरह से बन ही नहीं पाया, ऐसा नहीं है कि गठबंधन नहीं है लेकिन पूरी तरह से जो स्पष्ट तस्वीर बननी चाहिए थी वो नहीं बन पाई. इसी वजह से बड़े दल अलग होने लगे.”

विजय त्रिवेदी मानते हैं कि टीएमसी और आम आदमी पार्टी का अलग होकर लड़ने का एलान करना गठबंधन के लिए बड़ा झटका है.

त्रिवेदी कहते हैं, “टीएमसी गठबंधन में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी है, वो अलग हो गई है, टीएमसी ने अलग लड़ने का फैसला कर लिया है, ये इंडिया गठबंधन के लिए बड़ा झटका है.”

इसी बीच रविवार को नीतीश ने महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ सरकार बना ली है.

बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं. विश्लेषक मानते हैं कि नीतीश के साथ आने से बिहार में बीजेपी की स्थिति मज़बूत होगी.

नीतीश को साथ लेने से बीजेपी को कितना फ़ायदा?

हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि नीतीश को साथ लेना बीजेपी की मजबूरी है.

वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री मानते हैं कि राम मंदिर के बाद हिंदुत्व की कथित लहर के बावजूद बीजेपी को बिहार में सत्ता परिवर्तन करना पड़ रहा है. इससे ज़ाहिर है कि पार्टी आगामी लोकसभा चुनावों में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है.

हेमंत अत्री कहते हैं, “राम मंदिर के लिए जो आयोजन हुआ, उसके बाद पूरे देश में ये संदेश देने की कोशिश की गई कि भाजपा लोकसभा चुनावों में 400 से ज़्यादा सीटें जीतेगी. इसके बाद नरेंद्र मोदी जब दिल्ली पहुंचे तो उन्होंने बिहार के पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा कर दी. ऐसे में सवाल उठता है कि अगर बीजेपी 400 से अधिक सीटें जीतने को लेकर आश्वस्त थी तब राम मंदिर के कार्यक्रम के तुरंत बाद प्रधानमंत्री को ये राजनीतिक घोषणा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? इससे ये ज़ाहिर होता है कि नरेंद्र मोदी आगामी चुनावों में दिल्ली में अपनी सरकार लौटने को लेकर आश्वस्त नहीं थे.”

हेमंत अत्री कहते हैं, “बीजेपी जानती है कि उसे दो राज्यों में नुक़सान होने का सबसे बड़ा ख़तरा है, एक महाराष्ट्र और दूसरा बिहार . महाराष्ट्र में जिस तरह से बीजेपी ने एकनाथ शिंदे की सरकार बनवाई है, उससे स्पष्ट है कि पार्टी वहां ख़ुद को कमज़ोर मानती है.”

नीतीश के जाने के बाद गठबंधन के भविष्य को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में भले ही गठबंधन को नुक़सान हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बना रहेगा. लेकिन नीतीश के चले जाने से गठबंधन की छवि को ज़रूर नुक़सान होगा.

विजय त्रिवेदी कहते हैं, “नीतीश कुमार एनडीए के साथ चले गए हैं. नीतीश के जाने से भले ही गठबंधन ख़त्म ना हो, लेकिन पर्सेप्शन की लड़ाई में गठबंधन बहुत पीछे रह जाएगा, लोगों को लगेगा कि गठबंधन लड़ने की स्थिति में ही नहीं है. भले ही नीतीश कुमार को गठबंधन का चेहरा नहीं बनाया गया हो लेकिन उन्होंने देश भर में बैठकें कीं. अलग-अलग दलों के नेताओं को एक साथ लाने की कोशिश की. अब नीतीश ही गठबंधन से अलग हो गए हैं, इससे ज़ाहिर तौर पर गठबंधन कमज़ोर नज़र आएगा.”

वहीं हेमंत अत्री मानते हैं कि इंडिया गठबंधन का चेहरा ना घोषित होने के बाद से ही नीतीश गठबंधन से अलग होने का बहाना खोज रहे थे.

अत्री कहते हैं, “नीतीश को बाहर निकलने का कोई बहाना चाहिए था. बीजेपी ये जानती है कि नीतीश इंडिया गठबंधन की कमज़ोर कड़ी हैं क्योंकि जो वो चाहते थे, गठबंधन में उन्हें वो नहीं मिला. नीतीश को लग रहा था कि लालू तेजस्वी को जल्द से जल्द सीएम बनाना चाहते हैं और वो स्वयं मुख्यमंत्री का पद छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए ही वो बीजेपी के साथ गए हैं. नीतीश को साथ लेना बीजेपी की मजबूरी है क्योंकि आगामी लोकसभा चुनावों में बीजेपी बिहार में किसी भी सूरत में सीटों का नुक़सान उठाने की स्थिति में नहीं है.”

हालांकि विश्लेषक ये भी मानते हैं कि बिहार में भले ही गठबंधन को छवि का नुक़सान हो रहा है लेकिन अभी तेजस्वी और राहुल गांधी के पास लोगों के क़रीब जाकर अपनी बात रखने का मौका है.

हेमंत अत्री कहते हैं, “नीतीश के जाने से बिहार में इंडिया गठबंधन को नुक़सान होगा, इसमें कोई शक नहीं हैं. लेकिन तेजस्वी अब पूरे जोश में हैं, वो बीजेपी पर हमला कर रहे थे, अब नीतीश पर भी करेंगी. तेजस्वी नीतीश की मौकपरस्ती को भुनाने की कोशिश करेंगे, अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो जो नुक़सान हुआ है उसे वो फायदे में बदल सकते हैं.”

कहां कहां मजबूत है बीजेपी?

बीजेपी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और अन्य हिंदी भाषी राज्यों में मज़बूत स्थिति में नज़र आती है. विश्लेषक मानते हैं कि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल बीजेपी को अपने दम पर टक्कर देने की स्थिति में हैं.

विजय त्रिवेदी कहते हैं, “अगर अन्य राज्यों में इंडिया गठबंधन नहीं भी होता, वहां क्षेत्रीय दल बिना गठबंधन के भी मज़बूत स्थिति में हैं. चाहें तमिलनाडु हो, आंध्र प्रदेश हो, केरल हो, पश्चिम बंगाल हो या झारखंड हो, वहां क्षेत्रीय दल ये साबित कर चुके हैं कि वो बीजेपी को हराने में सक्षम हैं. बीजेपी इन राज्यों के क्षेत्रीय नेताओं के सामने लड़ने में अभी तक अपने आप को मज़बूत स्थिति में नहीं ला पाई है.”

ऐसे में ये सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस ने गठबंधन को मज़बूत करने में दरियादिली नहीं दिखाई.

त्रिवेदी कहते हैं, “कांग्रेस की सीटें बढ़तीं तो इंडिया गठबंधन को और अधिक ताक़त मिलती, जहां तक क्षेत्रीय दलों का सवाल है, वो अपने दम पर भी बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में हैं. कांग्रेस को गठबंधन को मज़बूत करने पर फ़ोकस करना चाहिए था.”

हेमंत अत्री भी यही राय रखते हैं.

अत्री कहते हैं, “जब तक इंडिया गठबंधन एकजुट नहीं दिखेगा तब तक गठबंधन के साथ छवि का संकट तो है लेकिन ये इतना बड़ा संकट नहीं है जिसे पार ना पाया जा सके. अगर इंडिया गठबंधन के दल एक सुर में बोलेंगे, तो उसका असर होगा.”

कांग्रेस के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह गठबंधन को लेकर बन रहे पर्सेप्शन को बदले और बाक़ी दलों को ये संदेश दे कि क्षेत्रीय दलों को मज़बूत बनाये रखना उसकी प्राथमिकता है.

त्रिवेदी कहते हैं, “कांग्रेस इंडिया गठबंधन का चुंबक हो सकती थी. लेकिन अब तक ऐसा लगता है कि कांग्रेस गठबंधन को मज़बूत करने की भूमिका नहीं निभा पाई. कांग्रेस का पूरा फ़ोकस अब तक ख़ुद को मज़बूत करने पर रहा है. पार्टी ने गठबंधन को मज़बूत करने पर उस तरह ध्यान नहीं दिया जैसे देना चाहिए था.”

“खड़गे और राहुल गांधी को क्षेत्रीय दलों के नेताओं से व्यक्तिगत मुलाक़ातें करके उनकी नाराज़गी दूर करनी चाहिए थी. गठबंधन के मज़बूत होने से कांग्रेस को ही फ़ायदा होता. कांग्रेस ने वो सक्रियता नहीं दिखाई जो उसे गठबंधन को बनाए रखने के लिए दिखानी चाहिए थी. राहुल गांधी को गठबंधन का झंडा उठाना चाहिए था लेकिन वो अलग से न्याय यात्रा लेकर निकल चुके हैं. अब उनके पास गठबंधन के दूसरे नेताओं के साथ बातचीत का समय भी नहीं होगा. कांग्रेस को ख़ुद को बड़ी पार्टी नहीं समझना था, बल्कि सबको बराबर रखने का प्रयास करना चाहिए था. इससे इंडिया गठबंधन और कांग्रेस दोनों की स्थिति बेहतर होती.”

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