बांग्लादेश चुनाव में शेख़ हसीना की जीत पहले से तय क्यों मानी जा रही है?

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DMT : बांग्लादेश  : (01 जनवरी 2024) : –

बांग्लादेश में सात जनवरी को आम चुनाव के लिए मतदान होने जा रहे हैं और इसके परिणाम भी पहले से निश्चित लग रहे हैं.

देश की मुख्य विपक्षी पार्टियां चुनाव का बहिष्कार कर रही हैं और वहीं कई नेता जेल में हैं. इसलिए माना जा रहा है कि सत्तारूढ़ आवामी लीग लगातार चौथी बार संसदीय चुनाव जीतने जा रही है.

सबसे बड़े विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और उसके सहयोगी दलों का कहना है कि उनका प्रधानमंत्री शेख़ हसीना में भरोसा नहीं है कि वो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराएंगी.

उनकी मांग है कि वो पद छोड़ दें और एक तटस्थ अंतरिम सरकार की निगरानी में चुनाव की अनुमति दें. इस मांग को हसीना ख़ारिज कर चुकी हैं. इस कारण बैलट पेपर पर सिर्फ़ आवामी लीग, उनके सहयोगी या स्वतंत्र उम्मीदवार ही नज़र आएंगे.

उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि शेख़ हसीना पिछले कुछ सालों में तेज़ी से निरंकुश हो गई हैं. आलोचक सवाल करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उन्हें जवाबदेह ठहराने के लिए अधिक कुछ क्यों नहीं कर रहा है.

शेख़ हसीना की सरकार ने ख़ुद के अलोकतांत्रिक होने के आरोप को ख़ारिज किया है.

क़ानून मंत्री अनीसुल हक़ ने बीबीसी से कहा, “चुनाव लोगों की मतदान में भागीदारी से निर्धारित होते हैं. इस चुनाव में बीएनपी के अलावा कई राजनीतिक दल हिस्सा ले रहे हैं.”

शेख़ हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश की एक अलग तस्वीर सामने आई है.

मुस्लिम बहुल राष्ट्र जो कभी दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में शामिल था, उसने हसीना के कार्यकाल में साल 2009 के बाद से ऐतिहासिक आर्थिक प्रगति हासिल की है.

इस क्षेत्र में ये सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जो भारत जैसी विशाल अर्थव्यवस्था से भी आगे निकल रही है.

इसकी प्रति व्यक्ति आय बीते दशक में तीन गुनी हो गई है और वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि बीते 20 सालों में 2.5 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी से निकले हैं.

देश के अपने फ़ंड्स, लोन्स और विकास मदद से हसीना की सरकार ने बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शुरू की हैं जिसमें उनकी सरकार की फ़्लैगशिप योजना 2.9 अरब डॉलर की पद्मा ब्रिज है.

यह योजना गंगा के किनारे बन रही है. माना जा रहा है कि यह पुल उसकी जीडीपी में 1.23 फ़ीसदी की बढ़ोतरी लाएगा.

हालांकि महामारी के दौर में बांग्लादेश को संघर्ष करना पड़ा. नवंबर में उसकी महंगाई दर 9.5 फ़ीसदी पहुंच गई.

उसके विदेशी मुद्रा भंडार में भी गिरावट आई और अगस्त 2021 में ये रिकॉर्ड 48 अरब डॉलर पर था जो अब 20 अरब डॉलर पर आ गया है. ये तीन महीने के आयात के लिए भी काफ़ी नहीं है.

साल 2016 में उसका विदेशी क़र्ज़ भी दोगुना हो गया.

आलोचकों का कहना है कि आर्थिक प्रगति लोकतंत्र और मानवाधिकार की क़ीमत पर आती है.

उनका आरोप है कि शेख़ हसीना के कार्यकाल में राजनीतिक विरोधियों, समीक्षकों और मीडिया के ख़िलाफ़ दमनकारी उपाय किए गए हैं.

अगस्त में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, वर्जिन ग्रुप के संस्थापक रिचर्ड ब्रेंसन और यूटू लीड सिंगर बोनो समेत 170 से अधिक दुनिया की प्रमुख हस्तियों ने नोबेल विजेताओं मुहम्मद यूनुस की ‘लगातार न्यायिक प्रताड़ना’ रोकने की मांग की थी.

हालिया महीनों में कई वरिष्ठ बीएनपी नेताओं को सरकार विरोधी प्रदर्शनों को लेकर हज़ारों समर्थकों के साथ गिरफ़्तार किया गया है.

अब्दुल मोईन ख़ान उन चुनिंदा बीएनपी के वरिष्ठ नेताओं में शामिल हैं, जिनको हिरासत में नहीं लिया गया है. उन्होंने आरोप लगाया है कि 20 हज़ार से अधिक पार्टी समर्थकों को ‘फ़र्ज़ी और मनगढ़ंत आरोप’ में गिरफ़्तार किया गया है, वहीं लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ केस दायर किए गए हैं.

सरकार ने इन आरोपों को ख़ारिज किया है.

क़ानून मंत्री हक़ ने बीएनपी के समर्थकों को हिरासत में रखने के आरोपों पर कहा, “मैंने इसको चेक किया है और ये आधी संख्या है.”

उनका कहना है, “2001 और 2004 के चुनावों के दौरान हुई हिंसक घटनाओं के कुछ मामले हैं.”

हालांकि, आँकड़े बताते हैं कि शेख़ हसीना के कार्यकाल में राजनीति से प्रेरित गिरफ़्तारियां, हत्याएं और शोषण बढ़ा है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने हाल में कहा था कि विपक्षी समर्थकों की गिरफ़्तारियां सरकार का ‘हिंसक निरंकुश दमन’ है.

यह उस नेता के लिए एक उल्लेखनीय बदलाव है, जिसने पहले कभी बहुदलीय लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया था.

1980 के दशक में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के कार्यकाल के दौरान शेख़ हसीना ने अपनी प्रमुख विपक्षी नेता बेगम ख़ालिदा ज़िया के साथ लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन आयोजित किया था.

बांग्लादेश के संस्थापक नेता शेख़ मुजीबुर रहमान की सबसे बड़ी बेटी शेख़ हसीना 1996 में बहुदलीय चुनाव के दौरान सत्ता में चुनी गईं पहली नेता थीं. इसके बाद साल 2001 में वो ख़ालिदा ज़िया के नेतृत्व वाली बीएनपी से चुनाव हार गईं.

दोनों महिला नेताओं को स्थानीय तौर पर ‘जंग लड़ रही बेगम’ कहा जाता है. मुसलमानों के बीच बेगम शब्द का इस्तेमाल ऊंचे ओहदे वाली महिलाओं के लिए किया जाता है.

बेगम ज़िया इस समय भ्रष्टाचार के मामले में नज़रबंद हैं और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं. वहीं ज़मीन पर बीएनपी के पास कोई करिश्माई नेता नहीं है.

विपक्षी नेताओं और समर्थकों की लगातार गिरफ़्तारी और सज़ा देने के बाद यह स्थिति और भी जटिल हो गई है. कई लोगों का तर्क है कि चुनाव से पहले बीएनपी को कमज़ोर करने के लिए आवामी लीग ने जानबूझकर ऐसा किया है.

सैयद मिया (बदला हुआ नाम) जैसे बीएनपी के अधिकतर समर्थक उत्पीड़न से बचने के लिए छिपे हुए हैं. 28 वर्षीय सैयद मिया ने राजनीतिक हिरासत में भाग लेने पर सितंबर में एक महीना जेल में बिताया था.

मिया अपने पार्टी के साथियों के साथ जंगली इलाक़े में एक टेंट में रह रहे हैं. उन पर एक रैली के दौरान हथियार रखने और हिंसा करने का आरोप है, इसी मामले में वो वांछित हैं.

वो बीबीसी से कहते हैं, “हम एक महीने से छिपे हुए हैं और लगातार अपनी जगहें बदलते हैं. हमारे ख़िलाफ़ सभी मामले झूठे हैं.”

लगातार बिगड़ती मानवाधिकार स्थिति को लेकर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां चिंतित हैं.

जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त के दफ़्तर एशिया-पैसिफ़िक के प्रमुख रॉरी मुंगोवेन बीबीसी से कहते हैं, “वर्तमान परिदृश्य एक ही घटना के मामले में हज़ारों विपक्षी पार्टी कार्यकर्ताओं को घेरने जैसा दिखता है.”

संयुक्त राष्ट्र के दूतों के एक समूह ने नवंबर में भी चेताया था. उनका कहना था, “न्यायिक सिस्टम को हथियार की तरह इस्तेमाल करके पत्रकारों, मानवाधिकार और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता कम हुई है और मूलभूत मानवाधिकार को नुक़सान पहुंचा है.”

लेकिन क़ानून मंत्री हक़ का कहना है कि सरकार का न्यायालय से कोई लेना देना नहीं है. वो कहते हैं, “देश में न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र है.”

मानवाधिकार समूहों को न केवल बड़ी संख्या में गिरफ़्तारियां और सज़ाएं चिंता में डाल रही हैं बल्कि उनका कहना है कि साल 2009 से अब तक सुरक्षाबलों की हिरासत में हत्याओं और जबरन ग़ायब कर देने के सैकड़ों मामले उनके पास हैं.

इस तरह के दुर्व्यवहार के पीछे ख़ुद के हाथ होने को सरकार पूरी तरह ख़ारिज करती है साथ ही वो इन मामलों की जांच करना चाह रहे विदेशी पत्रकारों के आने पर रोक भी लगाती है. अधिकतर स्थानीय पत्रकारों ने अपनी सुरक्षा के डर से इस तरह के मामलों को देखना भी बंद कर दिया है.

साल 2021 में कुख्यात पैरा-मिलिट्री फ़ोर्स रैपिड एक्शन बटालियन और उसके सात वर्तमान-भूतपूर्व अफ़सरों पर पाबंदी लगाने के अमेरिका के फ़ैसले के बाद हिरासत में हत्याओं की संख्या में गिरावट आई है.

हालांकि, अमेरिका के सीमित प्रतिबंधों के कारण बांग्लादेश में मानवाधिकार स्थिति ठीक नहीं हुई है. इसी वजह से कुछ राजनेता पश्चिमी देशों की ओर से और कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं.

यूरोपीय संसद के सदस्य केरेन मेलचियोर कहती हैं, “यूरोपीय आयोग को लोकतांत्रिक स्थिति के लिए बांग्लादेश को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. उसे बांग्लादेश को देने वाले टैरिफ़-फ्री उत्पादों को हटा लेना चाहिए.”

चीन के बाद बांग्लादेश दुनिया का सबसे बड़ा कपड़ों का निर्यातक है. बीते साल उसने 45 अरब डॉलर से ज़्यादा के रेडीमेड कपड़े भेजे थे, जिनमें अधिकतर को यूरोप और अमेरिका भेजा गया था.

वहीं अधिकतर लोग ये भी सवाल पूछते हैं कि इतने बड़े आर्थिक प्रभाव वाले पश्चिमी देश शेख़ हसीना को लोकतांत्रिक संस्थाओं को व्यवस्थित ढंग से ख़त्म करने की अनुमति क्यों दे रहे हैं.

इसके साथ ही उसका पड़ोसी देश भारत उसके ख़िलाफ़ किसी भी तरह के बलपूर्वक कार्रवाई के ख़िलाफ़ है. दिल्ली बांग्लादेश के रास्ते अपने सात उत्तर-पूर्व राज्यों में सड़क और नदी परिवहन चाहता है.

साथ ही भारत ‘चिकेंस नेक’ को लेकर चिंतित है. ये एक 20 किलोमीटर का कॉरिडोर है जो नेपाल, बांग्लादेश और भूटान के बीच से निकलता है और उत्तर-पूर्वी राज्यों को बाक़ी भारत से जोड़ता है.

2009 में सत्ता में लौटने के बाद हसीना ने दिल्ली का पक्ष लेते हुए उन जातीय उग्रवादी समूहों के ख़िलाफ़ काम किया जो भारत के उत्तर-पूर्व राज्यों में सक्रिय थे और सीमा पार से ऑपरेट करते थे.

साथ ही ये भी चिंताएं हैं कि अगर ढाका पर ओर दबाव डाला गया तो वो चीन की ओर भी जा सकता है. बीजिंग पहले से ही बांग्लादेश में अपनी पहुंच बनाने के लिए बेक़रार है क्योंकि वो भारत से भी मुक़ाबला करना चाहता है.

अभी के लिए हसीना का सत्ता में वापस लौटना साफ़ दिख रहा है लेकिन उनकी सत्ता को आने वाले समय में अलग-अलग क्षेत्रों से चुनौती मिलती दिख रही है.

ढाका पहले ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 4.7 अरब डॉलर के क़र्ज़ के लिए कह चुका है ताकि भुगतान संतुलन के किसी भी संकट को टाला जा सके. ऐसा संभव है कि सरकार चुनाव के बाद अर्थव्यवस्था को रफ़्तार में मदद देने के लिए कड़े क़दम उठा सकती है.

ऐसा हो सकता है कि उनके विरोधी उनके सामने खड़े न हों, लेकिन कठोर नीतियों के ख़िलाफ़ जनता का ग़ुस्सा शेख़ हसीना और उनकी आवामी लीग के लिए शुरुआती चुनौती बन सकता है.

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