बिहार: आज़ादी के 70 साल बाद आई थी बिजली, अब टॉर्च की रोशनी में खाना बनाने को मजबूर

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DMT : रोहतास  : (05 अप्रैल 2024) : –

सरिता के मिट्टी से लिपे-पुते घर के आंगन में दो खंभे और उन पर टिकी सोलर प्लेट लगी है. इन सोलर प्लेट से कुछ तार भी लटके सुस्ता रहे हैं. ये तार बताते हैं कि कभी यहां बिजली उपलब्ध थी.

लेकिन कभी स्कूल नहीं गई सरिता बताती हैं, “2018 में ये लगा था. दो बल्ब और पंखा भी सरकार से मिला था. कुछ दिन चला, फिर भुकभुकाया और हमेशा के लिए बंद हो गया. बाद में मुखिया जी बल्ब भी ले गए.”

पांच भाई-बहनों में से एक और बिना पिता की इस बच्ची से मैं पूछती हूं, फिर रात होने पर क्या करती हो? वो थोड़ा रुक कर कहती हैं, “कुछ नहीं जानवर की तरह अंधेरे में रहते हैं. जिनके पास थोड़ा भी पैसा है, उन्होंने अपना इंतज़ाम कर लिया है. मेरे यहां तो मम्मी गाय चराकर घर चलाती हैं और मेरा भाई बस घूमता रहता है.”

सरिता के घर के ठीक बगल में सोनी देवी टॉर्च के सहारे अपने तीन बच्चों के साथ रहती हैं. वो ‘टॉर्च’ को बार-बार लाइट कहती हैं. मेरे कहने पर वो अपनी लाइट दिखाती हैं, जो दरअसल टॉर्च है.

सरिता और सोनी दोनों ही रोहतास ज़िले के रोहतास प्रखंड के रोहतासगढ़ पंचायत के लुकापहरू गांव की हैं.

लुकापहरू कैमूर पहाड़ी का एक गांव है. आदिवासी बहुल इस दुर्गम इलाके में बसे लुकापहरू जैसे सैकड़ों गांव के लोग ऐसे ही अंधेरे में जीवनयापन करने को मजबूर है.

बिजली, सड़क, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित इस इलाके में आज़ादी के 70 साल बाद सौर ऊर्जा के ज़रिए बिजली आई थी, लेकिन ये खुशी जल्द ही काफूर हो गई.

कैमूर पहाड़ी लगभग 483 किलोमीटर लंबी विंध्य पहाड़ियों का पूर्वी भाग है जो मध्य प्रदेश के जबलपुर ज़िले में कटंगी से बिहार के सासाराम तक फैली हुई है.

इन पहाड़ियों पर रोहतास और कैमूर ज़िले के गांव बसे हैं. रोहतास ज़िले के रोहतास और नौहट्टा प्रखंड और कैमूर ज़िले की बात करें तो यहां अधौरा और चैनपुर प्रखंड के गांव हैं.

रोहतास प्रखंड की रोहतासगढ़ पंचायत के मुखिया नागेन्द्र यादव बताते हैं, “मेरी पंचायत में 27 गांव हैं, जिसमें से 20 पहाड़ी पर हैं. इन 20 गांव में 23 हज़ार की आबादी है. यहां पर सरकार ने एलएंडटी कंपनी से साल 2017 में सोलर पैनल लगवाया था. उससे डेढ़ साल तक बिजली आई, लेकिन उसके बाद बैट्री ख़राब हो गई. हम लोगों ने ज़िलाधिकारी साहब को शिकायत लिखकर दी है, लेकिन कोई हल निकला नहीं है. पंचायत के सभी लोग हम ही को दोष देते रहते हैं.”

इन गांवों में सरकार ने दो तरह से सोलर पैनल लगवाए हैं. गांव के ही सामूहिक सोलर पैनल और गांव के बाहरी इलाके में बसी बसावट में लिए उनके घरों के अंदर.

कैमूर पहाड़ी का ये इलाका दुर्गम और ऊंचाई पर स्थित होने के साथ-साथ वन विभाग का भी क्षेत्र है.

एक वक्त में ये इलाका नक्सल प्रभावित भी रहा, जिसके निशान आज भी रोहतास क़िले के खंडहरों में देखे जा सकते हैं.

दिसंबर, 2014 में केन्द्र सरकार ने दीन दयाल ग्राम ज्योति योजना (डीडीयूजीजेवाई) शुरू की थी.

6 फरवरी, 2024 को राज्यसभा में दिए गए एक जवाब के मुताबिक़, इस योजना के अंतर्गत 18,374 गांव का विद्युतीकरण किया गया जिसमें से 2,763 गांव का विद्युतीकरण अक्षय ऊर्जा (सौर ऊर्जा आदि) से किया गया. बिहार को डीडीयूजीजेवाई और सौभाग्य के तहत साल 2020-23 तक 2,152 करोड़ रुपये जारी किए गए थे.

डीडीयूजीजेवाई योजना के तहत ही बिहार के कैमूर पहाड़ी इलाके में साल 2016 में सर्वे किया गया.

उसके बाद साल 2017 से यहां सोलर पैनल्स लगाने शुरू किए गए. साल 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब इस इलाके में आए तब तक ज्यादातर गांव सौर ऊर्जा से रोशन हो चुके थे.

लेकिन एक साल बीतते-बीतते इन गांवों में लगे सोलर पैनल भी ख़राब होने शुरू हो गए.

पीपरडीह पंचायत के हसड़ी गांव के रामनरेश कहते हैं, “2018 से बिजली कभी बनती है, कभी बिगड़ती है. पूरे पहाड़ में सोलर वाला सिस्टम ख़राब पड़ा है. सब चाइना वाला सामान लगा दिया है तो क्या होगा? आप समझिए कि ‘सूरज बुत गया, हम सुत (सो) गए’ वाला हाल है यहां.”

रोहतासगढ़ पंचायत के रानाडीह गांव के वार्ड नंबर 4 के वार्ड पार्षद श्यामनारायण उरांव हैं.

वो बताते हैं, “हमारे गांव में साल भर बिजली आया, फिर बिजली नहीं आई. मुखिया जी से शिकायत करने पर मिस्त्री आते हैं. वो थोड़ा थोड़ा बनाकर चले जाते हैं. सरकार ने जो सोलर पैनल लगाया है उससे एक-दो घर छोड़ दीजिए तो पूरे वार्ड में कहीं बिजली नहीं है.”

बिजली की इस स्थिति से निपटने के लिए लोगों ने निजी तौर पर अपने घर में सोलर प्लेट्स लगा ली है.

राजेन्द्र उरांव और रजन्ती देवी के घर के अंदर लगे सोलर पैनल बेकार पड़े हैं.

राजेन्द्र उरांव बताते हैं, “हम लोगों ने अपना सोलर प्लेट ख़रीद लिया है, जो 1800 रुपये का पड़ा, बैट्री 1,200 रुपये मे ली और 25 रुपये के तीन बल्ब लिए हैं, जो कुछ दिन बाद बदलने पड़ते हैं. ये तीन बल्ब ही रात के खाना बनाने और खाते समय जलते हैं.”

राजेन्द्र उरांव ने जब दिन के उजाले में ये बल्ब जलाकर दिखाए तो वो जीरो वॉट बल्ब सरीखे ही थे. यानी ये ऐसी रोशनी दे रहे थे जो बिजली उपलब्धता वाले क्षेत्रों में लोग रात में सोते वक्त जलाते हैं.

लेकिन जो आर्थिक तौर पर सक्षम नहीं हैं, उनका क्या हुआ?

दरअसल सौर ऊर्जा आने के बाद सबसे पहला काम जो हुआ, वो ये कि जन वितरण प्रणाली से केरोसिन तेल मिलना बंद हो गया. जिससे ढिबरी-लालटेन जलाकर काम चलता था.

रोहतासगढ़ पंचायत की सुनीता उरांव से जब मैं मिली तो उन्होंने मुझे दो टॉर्च दिखाईं.

वो कहती हैं, “इसी को बार (जलाकर) खाना बनाते हैं. केरोसिन तेल अब मिलना बंद हो गया तो ढिबरी कैसे जलेगी? रोहतास (ज़मीनी इलाक़ा) जब कोई जाता है तो बैट्री ले आता है.”

सुनीता की तरह ही पीपरडीह पंचायत के नयाडीह गांव के विजेन्द्र कहते हैं, “बिजली आई तो तेल मिलना बंद हो गया. पहले आधा लीटर केरोसिन तेल मिलता था. अब अंधेरा होता है तो अंधेरे में पड़े रहते हैं. हम मिस्त्री तो हैं नहीं कि बैट्री ठीक कर लें.”

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