मध्य प्रदेश के सात प्रतिशत मुसलमानों का साथ क्या कोई पार्टी नहीं चाहती?

Hindi Madhya Pradesh

DMT : भोपाल  : (11 अगस्त 2023) : –

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव ने दस्तक दे दी है, अगले कुछ दिनों के अंदर ही राज्य के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अपने उम्मीदवारों का चयन कर लेंगे.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 230 सीटों के लिए इस बार होने वाले ये चुनाव बेहद रोचक होंगे क्योंकि उन्हें कांटे की टक्कर नज़र आ रही है.

इस प्रदेश में दो ही दलों का प्रभाव है इसलिए चुनावी लड़ाई आमने-सामने की ही है लेकिन प्रदेश के समाज का एक तबका ऐसा भी है जिसके अंदर चुनावों को लेकर ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है.

ये तबका है प्रदेश की आबादी के सात प्रतिशत मुसलमान.

चुनाव में नहीं दिख रही दिलचस्पी

मोहम्मद फ़िरोज़, दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक, भोपाल की ‘ताजुल मस्जिद’ के प्रांगण में छोटी सी ‘कैंटीन’ चलाते हैं.

उनकी इस ‘कैंटीन’ में अक्सर नमाज़ पढ़ने के बाद लोग चाय पीने के लिए जुटते हैं. चाय पर चर्चा भी होती है जो सियासत से लेकर समाज के दूसरे मुद्दों तक चली जाती है लेकिन आज यहाँ जमा लोग चुनावी मौसम की जगह देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रही बारिश और उससे हो रही तबाही की चर्चा कर रहे हैं.

बात करने पर फ़िरोज़ पूछते हैं, “आपको कहीं से लग रहा है कि मध्य प्रदेश तीन महीनों के अंदर चुनाव होने वाले हैं?”

फ़िरोज़ इसकी वजह बताते हैं, “मुसलमानों में चुनावों को लेकर अब उतना जोश नहीं रह गया है. पूरी विधानसभा में सिर्फ़ दो मुसलमान विधायक हैं, एक आरिफ़ अक़ील और एक आरिफ़ मसूद. अक़ील साहब बेहद बीमार चल रहे हैं. दूसरे विधायक आरिफ़ मसूद साहब हैं. कितने ही मुद्दे उठाएँगे वो मुसलमानों के? सवाल तो ये है कि मुसलमानों को कितने टिकट मिलेंगे. कांग्रेस की मुसलमानों में कोई दिलचस्पी नहीं है और भारतीय जनता पार्टी का तो एजेंडा जगज़ाहिर है.”

फ़िरोज़ अकेले नहीं हैं जो ऐसा सोचते हैं. भोपाल में रहने वाले मुसलमान युवा और पढ़े-लिखे तबक़े की यही चिंता है.

‘बरकतुल्लाह यूथ फ़ोरम’ के अनस अली मानते हैं कि मध्य प्रदेश में कम आबादी की वजह से मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर पार्टियाँ कभी गंभीर नहीं रही हैं. वो मानते हैं कि उनके समाज के ‘आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का ये सबसे बड़ा कारण है.’

वर्ष 1993 में एक ऐसा समय भी आया था, जब कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह पहली बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. उस समय छत्तीसगढ़ नहीं बना था, अविभाजित मध्य प्रदेश की विधानसभा में 320 सीटें हुआ करती थीं.

उस साल को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था जब उस समय भारत के ‘सबसे बड़े राज्य’ की विधानसभा में एक भी मुस्लिम विधायक निर्वाचित नहीं हुआ था.

तब दिग्विजय सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में एक मुस्लिम चेहरे को जगह दी थी. उनका नाम था इब्राहिम कुरैशी लेकिन कुरैशी विधायक नहीं थे और छह महीनों के अंदर वो कोई चुनाव भी नहीं जीत सके थे इसलिए उन्हें पद से हटना पड़ा.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक गिरिजाशंकर के अनुसार, “दिग्विजय सिंह ने अपने पहले मंत्रिमंडल में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने की दृष्टि से इब्राहिम कुरैशी को मंत्री बनाया, जो विधायक नहीं थे. मंत्री बनने के बाद छह माह के भीतर निर्वाचित नहीं हो पाने के कारण उनका इस्तीफ़ा ले लिया गया.”

इब्राहिम कुरैशी के पास वक्फ़, विज्ञान टेक्नोलॉजी और सार्वजनिक उपक्रम जैसे विभाग थे.

1993 के विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के छह मुसलमान उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था जबकि भारतीय जनता पार्टी ने भी अब्दुल गनी अंसारी को उम्मीदवार बनाया था. मगर इनमें से कोई भी चुनाव नहीं जीत सका था.

उन्होंने चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर मुसलमान प्रत्याशियों के तुलनात्मक प्रतिनिधित्व का आकलन किया है. अपने शोध में वो बताते हैं कि वर्ष 1980 के विधानसभा चुनावों में मुसलमान उम्मीदवार सबसे ज़्यादा थे और उनकी तादाद 35 थी.

इसके बाद के विधानसभा के चुनावों में ये तादाद घटती चली गई. पिछले विधानसभा के चुनावों में सिर्फ़ 14 मुसलमान उम्मीदवार ही मैदान में थे. अब तक सबसे ज़्यादा मुसलमान विधायक 1962 के विधानसभा चुनावों में जीतकर आये थे और उनकी तादाद सात थी.

साढ़े सात करोड़ की आबादी वाले मध्य प्रदेश में मुसलमान सात प्रतिशत के आसपास हैं लेकिन कुछ ऐसी सीटें हैं जहाँ पर मुसलमानों के वोट निर्णायक हैं. इसके बावजूद प्रदेश की विधानसभा में समाज के इस तबक़े का प्रतिनिधित्व घटता ही चला जा रहा है और उनके मुद्दे दरकिनार होते जा रहे हैं.

वो सीटें जहाँ मुसलमान असर रखते हैं

ऐसा नहीं है कि राज्य में हर जगह मुसलमान हाशिये पर हैं, मध्य प्रदेश में कई ऐसी सीटें हैं जहाँ मुसलमानों का वोट ख़ासा अहमियत रखता है.

भोपाल का इतिहास भी काफ़ी रोचक रहा है, आजादी के समय भोपाल, सीहोर ज़िले की एक तहसील हुआ करता था. भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल के ठीक पहले भोपाल को नवाबों और बेगमों की रियासत कहा जाता था.

भोपाल, इंदौर और बुरहानपुर में मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि 230 विधानसभा की सीटों में से 15 से 20 प्रतिशत ऐसी सीटें हैं जिन पर मुसलमान मतदाताओं का प्रभाव है.

भोपाल के पास नरेला विधानसभा की सीट के अलावा देवास की सीट, शाजापुर, ग्वालियर (दक्षिण), उज्जैन (उत्तर) रतलाम (सिटी), जबलपुर (पूर्व), साग़र, रीवा, सतना, मंदसौर, देपालपुर, खरगोन और खंडवा की विधानसभा की सीटों पर मुसलमान वोटरों का ख़ासा प्रभाव है.

राजनीतिक दलों पर आरोप है कि भोपाल की दो या तीन सीटों के अलावा वो मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट देने में आना-कानी करते हैं.

मध्य प्रदेश की विधानसभा में पिछले चार दशकों से मुसलमान विधायकों का प्रतिनिधित्व घटता ही चला जा रहा है. प्रदेश से आखिरी मुसलमान सांसद, हॉकी ओलंपियन असलम शेर खान ही रहे हैं और वो भी 80 के दशक में. उनके बाद फिर कभी कोई मुसलमान प्रत्याशी लोकसभा में मध्य प्रदेश से निर्वाचित नहीं हो पाया.

ग़ुम होती जा रही है आवाज़

समाज के लोगों का कहना है कि विधानसभा से लेकर संसद तक प्रदेश के मुसलमानों के मुद्दों को उठाने वाली आवाजें ख़त्म होती जा रही हैं.

यास्मीन अलीम, ‘बेगम्स ऑफ़ भोपाल’ नाम की संस्था की सचिव हैं जो सामजिक कार्यों और मुसलमान बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र काम करती है. यास्मीन कहतीं हैं कि कम प्रतिनिधित्व के बावजूद कुछ वर्षों पहले तक भी सरकार मुसलमानों के मुद्दों पर ध्यान देती थी. वो कहती हैं, “लेकिन अब सरकार का रवैया भी बदला-बदला-सा है.”

उनका कहना था कि ग़रीब मुसलमान अपने बच्चों को सरकार से मिलने वाली छात्रवृति के सहारे पढ़ाते थे लेकिन पिछले साल से ही इसे बंद कर दिया गया है. वो कहती हैं कि उनका समाज का एक बड़ी आर्थिक तंगी से जूझ रहा है जो न तो अपने बच्चों के लिए फ़ीस का इंतज़ाम कर पा रहा है और ना ही किताबें.

यास्मीन कहती हैं, “सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमान महिलाएँ झेल रही हैं. घरेलू हिंसा से लेकर आर्थिक तंगी तक सारा बोझ मुसलमान महिलाओं के सिर पर है. हमारे लिए आवाज़ कौन उठाएगा? मुसलमान महिलाओं के लिए आवाज़ कौन उठाएगा? बड़ा दुःख होता है. हम क्या कर रहे हैं. हम कुछ भी नहीं कर पा रहे क्योंकि हमारी आवाज़ तो हर तरह से दबाई जा रही है.”

मुसलमानों की अनदेखी का आरोप

मध्य प्रदेश राज्य के रूप में 1956 में अस्तित्व में आया. गठन के बाद से सबसे अधिक शासनकाल कांग्रेस का रहा इसलिए मुसलमानों के घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर कांग्रेस पर ही सभी ज़्यादा उंगलियाँ उठ रही हैं.

अब संगठन के वरिष्ठ नेताओं ने खुलकर बोलना भी शुरू कर दिया है और कांग्रेस पार्टी के आला कमान पर ‘मुसलमानों की अनदेखी’ का आरोप लगाना शुरू कर दिया है. इन वरिष्ठ नेताओं ने प्रदेश के कई क्षेत्रों में समाज के लोगों से साथ बैठकें भी की हैं और पार्टी को इस बारे में चेताया भी है.

अज़ीज़ कुरैशी राज्यपाल भी रह चुके हैं और केन्द्रीय मंत्री भी. वर्ष 1972 से वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे हैं लेकिन इस बार उनका नाम केंद्रीय कमेटी की सूची में नहीं है.

कांग्रेस पार्टी से नाराज़ चल रहे वरिष्ठ नेताओं की अगुवाई वो ही कर रहे हैं.

बीबीसी से बात करते हुए कुरैशी कहते हैं, “आज मेरी ही पार्टी में मेरी कोई औकात नहीं रह गई है. सन 1972 से मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य रहा हूँ. इस बार मेरा नाम ग़ायब कर दिया गया है. कांग्रेस पार्टी सोचने लग गई है कि मध्य प्रदेश में मुसलमानों की औकात ही क्या है. झक मारकर हमारे पास आएँगे, और ये उनकी बहुत बड़ी ग़लतफहमी है. इनको ये एहसास दिलाना ज़रूरी है कि हम इनके ग़ुलाम नहीं हैं.”

कुरैशी का आरोप है कि पहले जो आवाजें मुसलमानों के अधिकारों के लिए उठा करतीं थीं, चाहे वो कांग्रेस पार्टी के अंदर से हों या समाजवादी सोच वाले नेताओं की हों, वो आवाजें अब धीमी पड़ गई हैं.

कुरैशी का कहना था, “कांग्रेस भी अब हिंदुत्व के रास्ते पर निकल पड़ी है ये सोचते हुए कि वो भारतीय जनता पार्टी का इसके ज़रिए मुक़ाबला कर सकती है. जो धर्मनिरपेक्षता के चैंपियन होने का दम भरते थे वो या तो डर गए हैं या फिर वोटों की ख़ातिर खामोश रहना पसंद कर रहे हैं.”

बग़ावत करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का ये भी आरोप है कि उनकी पार्टी भी अब मुसलमान नेताओं को मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों से टिकट देने में हिचकिचा रही है.

कांग्रेस भी नहीं चाहती मुसलमानों के वोट?

कांग्रेस के पूर्व सांसद और हॉकी ओलंपियन असलम शेर खान कहते हैं कि पहले भी कांग्रेस के नेतृत्व के लिए मुसलमानों को लेकर मध्य प्रदेश में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रही है. उनका आरोप है कि अब तो नौबत यहाँ तक आ पहुंची है कि मुसलमानों के सात प्रतिशत वोटों में भी कांग्रेस की दिलचस्पी नहीं रही.

कांग्रेस के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, “अब तो मुसलमानों के वोट मांगने भी नहीं जा रहे बड़े नेता. कांग्रेस के कई हिन्दू नेता भी मुस्लिम बहुल सीटों का टिकट चाहते हैं क्योंकि उनको वहाँ से जीतना बहुत आसान हो जाता है. अगर मुस्लिम बहुल सीटें हैं जहाँ 50, 60, 70 या 80 हज़ार मुसलमान मतदाता हैं तो वहाँ अगर कोई कांग्रेसी हिंदू टिकट ले ले तो उसका जीतना आसान हो जाता है.”

बीबीसी के साथ चर्चा के दौरान असलम शेर खान ने कांग्रेस के शासनकाल में शुरू किए गए परिसीमन पर भी सवाल उठाए.

उन्होंने कहा, “जो हमारी सीटें थीं उनका इस तरह से परिसीमन किया जाता है कि जिससे मुसलमानों को बाँट दिया जाए क्योकि अगर परिसीमन नहीं करते तो मुसलमान उम्मीदवार निर्दलीय ही जीत जाएँगे. तो जैसे सीहोर है, भोपाल है, ये विधानसभा क्षेत्र को इधर से उधर ले जाते हैं. इसका मक़सद होता है कि मुसलमान एक जगह ज्यादा न हो जाएँ. अब ये किसकी पॉलिसी है. कांग्रेस की सरकारें भी रही हैं, भाजपा की भी रही हैं.”

वरिष्ठ नेताओं की बग़ावत और उनके आरोपों से कांग्रेस पार्टी में बेचैनी तो है मगर प्रदेश कमेटी के लिए ये ज़्यादा चिंता का विषय नहीं है. वैसे कांग्रेस पर आरोप लग रहे हैं कि वो भारतीय जनता पार्टी से टक्कर लेने के लिए खुलकर हिंदुत्व की पिच पर खेलकर ये विधानसभा के चुनाव लड़ना चाहते हैं.

कांग्रेस में मुसलमान दो गुटों में बँटे

मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता अब्बास हफ़ीज़ से बीबीसी ने इस बाबत जब पूछा तो उन्होंने इन बागी नेताओं पर सवाल उठाए.

अब्बास हफ़ीज़ कहते हैं, “ये जो लोग हैं इन्होंने अपने वक़्त में क्या किया? इनको वरिष्ठ नेता कहते हैं हम लोग. पुराने कांग्रेस वाले थे. मुस्लिम लीडर्स. इनके पास मंत्रालय रहे. ये सांसद भी बने. विधायक बने. ये बड़े मंत्रालयों के मंत्री बने. राज्यपाल भी बने. इन्होंने क्या किया उस वक़्त? उस वक़्त अगर उन्होंने कुछ किया होता तो शायद ये हालात नहीं बनते.”

हफ़ीज़ मानते हैं कि मध्य प्रदेश में मुसलमान ‘राजनीतिक हाशिये’ पर जा रहे हैं. मगर वो इसके लिए बग़ावत करने वाले वरिष्ठ नेताओं को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं.

चर्चा के दौरान उन्होंने बागी नेताओं की आलोचना करते हुए कहा, “तमाम मध्य प्रदेश के अन्दर माइनॉरिटी के नाम पर बैठकें करेंगे. कांग्रेस को कमज़ोर करने की कोशिश करेंगे. आज भी इनकी जितनी मांगें होंगी, वो टिकट बंटवारे तक होती हैं कि हमें टिकट दे दीजिए. टिकट किसको मिलेंगे? मतलब उनको ख़ुद को टिकट मिले या फिर उनके परिवार में जाए टिकट.”

मध्य प्रदेश में मुसलमानों के ‘राजनीतिक अस्तिव’ को लेकर हमेशा से ही बहस चलती रही है. राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि कांग्रेस की सरकारों में भी जीत कर आए गिने-चुने मुसलमान विधायकों की उपेक्षा होती रही थी.

बाक़ी देश के हालात बहुत अलग नहीं

कांग्रेस पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई मानते हैं कि मुसलमानों का राजनीतिक हाशिये पर होना ‘केवल भाजपा या भाजपा शासित राज्यों तक सीमित’ नहीं है.

वो कहते हैं, “कांग्रेस या कांग्रेस शासित राज्यों में भी उनको पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है. मुसलमान नेता को केवल वो वक्फ़ बोर्ड या हज कमिटी में रख लिया जाता है. और अगर मुसलमान विधायक मंत्री भी बन जाता है तो उसके पास वक्फ़ बोर्ड या अल्पसंख्यक मामलों जैसे विभाग आते हैं. कोई उसे भारी भरकम विभाग जैसे गृह, वित्त या सामान्य प्रशासन या लोक निर्माण विभाग, इस तरह के विभागों से दूर ही रखा जाता है.”

इस चुनावी माहौल में भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस में चल रही बग़ावत का एक तरह से ‘मज़ा’ ले रही है. संगठन ने कांग्रेस के ‘मुसलमान वोट बैंक’ में सेंधमारी की पूरी रणनीति भी तैयार कर ली है.

हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘पिछड़े मुसलमानों’ या पसमांदा मुसलमानों के ‘उत्थान’ के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा था.

हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को ‘मुसलमान महिलाओं से राखी बंधवाने’ की बात भी कही थी.

पसमांदा मुसलमानों पर बीजेपी की नज़र

मध्य प्रदेश में ‘पिछड़े मुसलमानों’ के बीच काम करने की शुरुआत भी भाजपा ने नगर निकाय चुनावों से कर दी है. भाजपा ने नगर निकाय के चुनावों में मुसलमानों के बीच खुलकर टिकट बाँटे थे. इन चुनावों में कई मुसलमान उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर जीत कर भी आए.

पिछले विधानसभा के चुनावों में भाजपा ने मुस्लिम महिला, फातिमा सिद्दीक़ी को टिकट दिया था.

भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के प्रवक्ता हितेश वाजपेयी कहते हैं कि कांग्रेस ने हमेशा से ‘मुसलमानों का चुनावी शोषण’ किया है.

वाजपेयी के अनुसार, “कांग्रेस ने हमेशा मुसलमानों के बीच भारतीय जनता पार्टी को लेकर भ्रम फैलाया. हमें मुसलमानों का दुश्मन बताया. इसको प्रचारित करके मुसलमानों का चुनावी शोषण किया. ये मैं इसलिए कहूँगा कि कांग्रेस ने कभी अपनी अगड़ी पंक्ति के नेतृत्व में मुसलमानों को कोई जगह दी ही नहीं. मध्य प्रदेश को यदि आप उठाकर देखेंगे तो बड़ी संख्या में मध्य प्रदेश में ठाकुरों के और सवर्ण वर्गों का क़ब्ज़ा जैसा कांग्रेस पर रहा.”

वाजपेयी कहते हैं कि इस बार नगर निकाय चुनावों में उनकी पार्टी ने 400 के आसपास मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिए जिनमें से 100 ऐसे हैं जिन्होंने हिन्दू उम्मीदवारों को हराया है.

बीबीसी से बात करते हुए वाजपेयी कहते हैं, “आप मानकर चलिए, हमारे लिए उत्साहजनक है कि हम बिना तुष्टीकरण के संतुष्टीकरण कैसे कर सकते हैं.”

बीजेपी मौक़े का फ़ायदा उठा रही है?

भोपाल (मध्य) की सीट से मौजूदा कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद ने भारतीय जनता पार्टी के दावों पर पलटवार करते हुए कहा कि भाजपा ने मुसलमान उम्मीदवारों को वहीं टिकट दिए जहाँ मुसलमानों की आबादी अच्छी-ख़ासी थी.

वो ये भी मानते हैं कि इन सीटों पर कांग्रेस ने मुसलमानों की जगह हिंदुओं को टिकट दिए थे जिसका भाजपा ने भरपूर फ़ायदा उठाया.

उनका कहना था, “ज़ाहिर है, मुसलमानों को अपनी नुमाइंदगी जाती हुई दिखी तो उन्होंने अपना वोट ‘शिफ्ट’ कर दिया. इसे मैं भाजपा की जीत नहीं मानूँगा. भाजपा को सिर्फ़ परिस्थितियों का फ़ायदा मिला है. भाजपा को अगर मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देना होता तो अभी दे न. नगर निगम छोड़ें. अभी विधानसभा के चुनाव आने वाले हैं. भाजपा बताये कि किन सीटों पर टिकट दे रहे हैं मुसलमानों को और कितने टिकट दे रहे हैं?”

घटते प्रतिनिधित्व और मुसलमानों के हाशिये पर सिमट जाने की बहस के बीच देश के जाने-माने शायर मंज़र भोपाली से जब बीबीसी ने मुलाक़ात की तो उन्होंने समाज को ही पिछड़ेपन का ज़िम्मेदार ठहराया.

उनका कहना है कि शिक्षा को लेकर अब भी समाज काफ़ी पीछे इसलिए है क्योंकि लोग पढ़ना ही नहीं चाहते.

उन्होंने मध्य प्रदेश और ख़ास तौर पर भोपाल के मुसलमानों की जीवनशैली में बड़े सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर दिया.

वो कहते हैं, “अपनी नाकामी का इल्ज़ाम दूसरे किसी पर लगा देना सबसे आसान काम है जबकि हकीकत ये है कि मुसलमान शिक्षा की तरफ़ ध्यान नहीं देता है. समाज के युवाओं में महत्वकांक्षा ही नहीं दिखती कुछ बनने की.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *