मध्य प्रदेश: हिंदुत्व की सबसे पुरानी प्रयोगशाला में बुलडोज़र के प्रयोग

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DMT : भोपाल  : (20 जुलाई 2023) : –

बात साल 1956 के एक नवंबर की है जब 337 सदस्यों के साथ मध्य प्रदेश की ‘एकीकृत’ और पहली विधानसभा का गठन हुआ था. उससे पहले ये इलाका चार प्रांतों में बँटा हुआ था–मध्य प्रदेश, मध्य भारत, विन्ध्य प्रदेश और भोपाल. फिर इनके विलय के बाद मध्य प्रदेश राज्य का औपचारिक गठन हुआ.

चुनाव आयोग के आंकड़ों के हिसाब से इस नई विधानसभा में उस समय के सबसे प्रमुख राजनीतिक दल, यानी कांग्रेस के 258 विधायक थे. इस सदन में सबसे बड़ा विपक्षी दल था सोशलिस्ट पार्टी जिसके 16 विधायक थे.

मगर इस नई विधानसभा के सदन की सबसे महत्वपूर्ण बात ये थी कि इसमें हिंदू महासभा के 12 विधायक थे जबकि भारतीय जनसंघ के छह.

ये प्रदेश की पहली अंतरिम सरकार थी.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक गिरिजा शंकर कहते हैं कि नागपुर से निकटता की वजह से मध्य प्रदेश में संघ ने अपनी पैठ आज़ादी से पहले से ही बनानी शुरू कर दी थी. पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे हिन्दुत्ववादी संगठनों का प्रभाव मालवा के इलाक़ों में रहा. फिर इनका प्रभाव भिंड और चंबल के अलावा प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी तेज़ी से फैलता गया.

जल्द ही मध्य प्रदेश की एक छवि बन गई और कहा जाने लगा कि ये पूरे भारत में हिंदुत्व की ‘सबसे पुरानी’ प्रयोगशाला है.

तीन ‘हिन्दुत्ववादी राजनीतिक’ संगठन यहाँ पूरी तरह से काम कर रहे थे – हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ.

ये चुनाव भी लड़ रहे थे, जबकि राजनीति से ख़ुद को अलग रखने का दावा करने वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ज़मीनी स्तर पर हिन्दुओं को लामबंद करने का काम कर रहा था और लोगों को ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की तरफ़ ‘प्रेरित’ कर रहा था.

हिन्दू महासभा

गिरिजा शंकर कहते हैं कि शुरू में हिन्दू महासभा एक ग़ैर-राजनीतिक संगठन हुआ करता था जिससे कांग्रेस के भी कई बड़े नेता जुड़े हुए थे. मगर वर्ष 1930 में हिन्दू महासभा ने ख़ुद को एक राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत करवा लिया था.

गिरिजा शंकर बताते हैं कि नए मध्य प्रदेश में शामिल पुराने प्रांतों में से मध्य भारत प्रांत ऐसा था जहां हिन्दू महासभा ने पहले से ही अच्छी पैठ बना ली थी.

हिन्दू महासभा को मध्य भारत में विधानसभा के चुनावों में मिली सफलता की वजह से सिंधिया राजघराने और दूसरे राजवाड़ों का इसे ख़ूब समर्थन भी मिल गया था.

रामराज्य परिषद

हिन्दुत्ववादी संगठन रामराज्य परिषद की स्थापना 1948 में स्वामी करपात्री ने की थी और संगठन ने 1952 में हुए आम चुनावों में मध्य प्रदेश, विन्ध्य प्रदेश और मध्य भारत में अपने प्रत्याशी खड़े किए जिनका प्रदर्शन अच्छा रहा.

गिरिजा शंकर कहते हैं कि स्वामी करपात्री को उन रियासतों का भरपूर समर्थन हासिल था जो उनके अनुयायी थे और विधानसभा के चुनावों में रामराज्य परिषद को मध्य भारत में 2, विन्ध्य प्रदेश में 2 और मध्य प्रदेश में 3 सीटों पर कामयाबी भी मिली.

वैसे मध्य प्रदेश की जिन तीन सीटों पर राम राज्य पार्टी के उम्मीदवार जीते थे वो अब के छत्तीसगढ़ के रियासती इलाक़े थे जैसे पंडरिया, कवर्धा और जशपुर. इसके अलावा लोकसभा के चुनावों में भी राम राज्य परिषद के उम्मीदवारों का बेहतर प्रदर्शन रहा था जिसमें 6 सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे थे.

भारतीय जनसंघ

1952 के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश और भोपाल में भारतीय जनसंघ का खाता तक खुल नहीं पाया था. अलबत्ता मध्य भारत में उसे चार और विन्ध्य प्रदेश में दो सीटें मिलीं थीं.

गिरिजा शंकर ने अपनी क़िताब में भी इसका उल्लेख किया है. वो लिखते हैं, “1952 के लोकसभा के चुनावों में देश में जिन तीन सीटों पर भारतीय जनसंघ को सफलता मिली थी उनमें से एक सीट राजस्थान के चित्तौड़ की थी, लेकिन वहाँ से चुनाव लड़ने वाले सांसद उमाशंकर त्रिवेदी मध्य भारत के मंदसौर से थे.”

इस चुनाव में तीनों ही हिन्दुत्ववादी दल एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे. मगर विधानसभा चुनावों में जनसंघ को मध्य भारत के ग्वालियर इलाक़े में हिन्दू महासभा के बड़े प्रभाव की वजह से सफलता नहीं मिली सकी थी. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के प्रभाव की वजह से जनसंघ का खाता नहीं खुल पाया था लेकिन मालवा में उसकी पकड़ अच्छी थी जिसकी वजह से उसकी झोली में सात सीटें आ गई थीं.

आख़िरकार हिंदूवादी संगठनों ने जड़ें जमा ही लीं

इन संगठनों ने कांग्रेस का गढ़ रहे मध्य प्रदेश में अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर लीं कि 1990 में पहली बार ऐसा हुआ जब भारतीय जनता पार्टी ने भारी बहुमत के साथ प्रदेश में सरकार बना ली.

अपनी क़िताब ‘समकालीन राजनीति: मध्य प्रदेश’ में गिरिजा शंकर लिखते हैं कि 1990 के विधानसभा के चुनावों से पहले कांग्रेस के सदन में 250 विधायक थे. जनता दल के गठबंधन से चुनाव लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी ने सभी समीकरणों को उलट दिया था और भारतीय जनता पार्टी को 220 सीटों पर जीत हासिल हुई जबकि कांग्रेस 56 सीटों पर सिमटकर रह गई थी.

गिरिजा शंकर कहते हैं कि हिंदुत्व को लेकर जो काम इन दक्षिणपंथी संगठनों ने किया, 1990 के विधानसभा के चुनावों में पहली बार भारी बहुमत मिलना उसी का परिणाम था.

वो कहते हैं, “भाजपा को मिली जीत इस मायने में ऐतिहासिक रही, कि उसके प्रत्याशियों की जीत का आंकड़ा 82 प्रतिशत था जो अपने आप में एक रिकार्ड था. ये चुनाव, कांग्रेस के लिए प्रदेश में आपातकाल के बाद वाले विधानसभा के चुनावों से भी ज़्यादा निराशाजनक थे.”

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस भारी जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी और संघ को हिंदुत्व के अपने एजेंडे का विस्तार करने के लिए ‘एक तरह से खुला मैदान’ मिल गया और देखते ही देखते हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपनी पैठ दूर-दराज़ के ग्रामीण इलाक़ों तक मज़बूत करनी शुरू कर दी.

मध्य प्रदेश में मुसलामानों की आबादी 6 से 7 प्रतिशत के बीच है.

विश्लेषक ये भी कहते हैं कि नब्बे के दशक से लगातार हिन्दुत्ववादी संगठनों के काम का भारतीय जनता पार्टी को भरपूर फ़ायदा होता रहा और उसने सत्ता में अपनी मज़बूत पैठ बना ली जिसे भेद पाना मुश्किल हो गया था.

हिंदुत्व और ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की जहां तक बात है तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता जसविंदर सिंह कहते हैं, “मध्य प्रदेश हिंदुत्व का सबसे मज़बूत गढ़ रहा है जहां हिन्दुत्ववादी संगठनों ने हर तरह के प्रयोग किए. ये हिंदुत्व की गुजरात से भी पुरानी प्रयोगशाला रही है. महाराष्ट्र के मालेगांव के बम धमाकों की घटना के भी तार मध्य प्रदेश से ही आकर जुड़े.”

वो कहते हैं कि समाजवादी संगठनों को छोड़कर, मध्य प्रदेश में दूसरे राजनीतिक दलों ने भी हिंदुत्व के ज़रिए ही चुनावी रणनीति बनानी शुरू कर दी.

बीबीसी से बातचीत के दौरान जसविंदर सिंह ने 1993 में हुए विधानसभा के चुनावों का हवाला देते हुए कहा कि जब इन चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई तो उस समय के संघ के प्रभारी रज्जू भैय्या का बयान देशभर में काफ़ी चर्चा में रहा था.

सिंह कहते हैं, “रज्जू भैय्या ने चुनावी परिणामों के बाद टिप्पणी की थी कि भारतीय जनता पार्टी को बेशक हार का सामना करना पड़ा हो लेकिन ये हिंदुत्व की जीत इस मायने में है कि पहली बार ऐसा हुआ कि कोई मुस्लिम विधायक इस विधानसभा में चुनकर नहीं आया.”

कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में जब 1993 के 14 दिसंबर को सरकार का गठन हुआ तो उन्हें एक मुस्लिम नेता, इब्राहीम कुरैशी, को मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ा जबकि कुरैशी विधायक भी नहीं थे.

कुरैशी मंत्री तो बन गए थे लेकिन छह महीनों के अंदर वो किसी भी विधानसभा की सीट से चुनकर नहीं आ सके और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ गया था.

‘ऐसे तो नहीं थे सरकार’

जाने-माने वयोवृद्ध लेखक और टिप्पणीकार लज्जाशंकर हरदेनिया का मानना है कि डेढ़ दशक पहले तक हिंदूवादी संगठनों में उतनी आक्रामकता नहीं थी जितनी अब देखी जा रही है.

उनका कहना है कि डेढ़ दशक या एक दशक पहले तक अल्पसंख्यकों के साथ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के रिश्ते सामान्य रहे थे. हिन्दुत्ववादी संगठन भी बिना आक्रामक हुए अपना काम करते रहे थे और संगठन का विस्तार कर रहे थे.

हरदेनिया बताते हैं कि बीजेपी की रणनीति पहले सॉफ्ट हिंदुत्व की थी.

वो बताते हैं, “पहले तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ईद के रोज़ ईदगाह जाते थे और लोगों को बधाई देते थे. भारतीय जनता पार्टी के दूसरे नेता भी यही करते रहे. लेकिन 2018 से भारतीय जनता पार्टी के रवैय्ये में बदलाव साफ़ झलकने लगा. हो सकता है विधानसभा के चुनावों में हार के बाद, शिवराज सिंह चौहान भी योगी आदित्यनाथ जैसा बनने की जुगत में लग गए, ये सोचते हुए कि शायद कट्टर छवि से उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा.”

हरदेनिया कहते हैं, शिवराज सिंह चौहान की छवि एक ‘उदारवादी नेता’ की थी. उनके गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र भी रमज़ान के महीने में इफ़्तार में जाया करते थे. मुख्यमंत्री आवास में भी इफ़्तार का आयोजन होता था, मगर वो भी पिछले दो सालों से बंद है.

उनका कहना था, “अलबत्ता अब जिस तरह के बयान शिवराज सिंह चौहान दे रहे हैं या जैसी कार्रवाई वो कर रहे हैं, वो उनकी यानी शिवराज सिंह चौहान की पहले की छवि के बिलकुल विपरीत है. वैसे आक्रामकता का बीड़ा अब उनके मंत्रिमंडल के लगभग हर मंत्री ने उठा लिया है जैसे गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र और संस्कृति मंत्री ऊषा ठाकुर.”

हरदेनिया कहते हैं कि अब आक्रामकता ज़्यादा बढ़ गई है और उन्होंने राज्य सरकार पर ही इसे बढ़ावा देने का आरोप लगाया.

कई घटनाएँ

जानकार मानते हैं कि पिछले तीन सालों में कोरोना महामारी के समय तबलीग़ी जमात के लोगों की गिरफ़्तारी से ये सब कुछ शुरू हुआ.

भोपाल के स्थानीय पत्रकार काशिफ काकवी बताते हैं कि उसके बाद सरकार ने कई ऐसे विवादास्पद फ़ैसले लिए जिससे अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना पनपने लगी और उन्हें लगने लगा कि ‘उन्हें राजनीतिक रूप से प्रताड़ित’ किया जा रहा है.

चाहे बुलडोज़र के एकतरफ़ा इस्तेमाल के आरोप हों या फिर मदरसों के सर्वे या फिर जिनपर हमले हुए उन्हीं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करके जेल भेज देने और घर तोड़ देने के आरोप हों. मध्य प्रदेश की सरकार और ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बदली हुई छवि की आलोचना होने लगी.

नीमच – पिछले साल 21 मई को एक वीडियो वायरल हुआ जिसमे एक बुज़ुर्ग को कुछ लोग पीटते हुए दिखाई दे रहे थे. उग्र भीड़ बुज़ुर्ग से आधार कार्ड मांग रही थी. वीडियो में जो लोग दिख रहे थे उनमें से एक व्यक्ति पूछता दिख रहा था – “तुम्हारा नाम मोहम्मद है.”

छिंदवाड़ा – बीते साल सितम्बर माह में एक भीड़ ने वाजिद अली नामक युवक और उसकी माँ पर हमला कर दिया. ये घटना ओरिया गाँव की थी.

गौ-तस्कारी का आरोप लगाते हुए वाजिद अली को मोटरसाइकिल के पीछे बाँधकर घसीटा गया और उनसे धार्मिक नारे लगवाए गए. पुलिस ने मामला दर्ज किया.

मंदसौर– अक्टूबर में 14 साल के एक बच्चे के बुरी तरह गाड़ी चलाने के विवाद की वजह से दो गुटों में झड़प हुई. इसके बाद 24 घंटों के भीतर मुस्लिम पक्ष के तीन घरों पर बुलडोज़र चलने की ख़बर मिली.

‘सिटिज़न्स एंड लॉयर्स इनिशिएटिव’ नाम की संस्था की रिपोर्ट की प्रस्तावना सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रोहिंटन नरीमन ने लिखी है जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदूवादी संगठनों की आक्रामकता की घटनाओं को संकलित किया गया है.

इस रिपोर्ट में कई घटनाओं की चर्चा की गई है जिसमें 10 मार्च को खरगोन की घटना भी है जब तालाब चौक की एक मस्जिद के अन्दर कथित तौर पर पटाखे फेंके गए थे. रिपोर्ट के अनुसार ये विजय जुलूस भाजपा की चार राज्यों में विधानसभा के चुनावों में जीत की ख़ुशी में निकाला गया था.

खरगोन की मस्जिद कमेटी के प्रमुख हिदायतुल्लाह मंसूरी ने न्यूज़ पोर्टल ‘द वायर’ से बात करते हुए कहा कि एक साल के दौरान ऐसे कई मामले हुए हैं जहाँ मस्जिदों पर हमले हुए हैं. मगर उनका आरोप है कि किसी भी मामले में स्थानीय प्रशासन ने दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की है.

रिपोर्ट में देवास की घटना का भी उल्लेख है जब कथित तौर पर हिन्दू युवावाहिनी, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बोहरा समुदाय को वैसे पटाखे बेचने से रोक दिया जिसमें हिन्दू देवी देवताओं की तस्वीरें छपी हुई थी.

इस रिपोर्ट में 2021 के जनवरी माह में इंदौर की उस घटना का भी उल्लेख है जब चूड़ी बेचने वाले एक व्यक्ति पर हिंदूवादी संगठनों ने हमला किया और उसे जेल भी जाना पड़ा.

रिपोर्ट में ‘स्टैंड अप कॉमेडियन’ मुनव्वर फ़ारूकी पर बजरंग दल के हमले और उनके ख़िलाफ़ प्राथमिकी के मामले को भी दर्ज किया गया है.

2021 में राज्य सरकार ने ‘मध्य प्रदेश लोक एवं निजी संपत्ति को नुक़सान का वसूली अधिनियम पास कर लिया. राज्य के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि इस क़ानून के तहत ‘पत्थर फेंकने वालों’ असामाजिक तत्वों और दंगा करने वालों पर कार्रवाई की जाएगी.

‘सिटिज़ंस एंड लॉयर्स इनिशिएटिव’ की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि इस नए क़ानून से सिर्फ़ अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है.

मध्य प्रदेश में आरोप लग रहे हैं कि सरकारी अमला पूरी तरह से ‘संघ के प्रभाव’ में काम कर रहा है. सरकारी अधिकारी ‘संघ की शाखाओं में शामिल’ हो रहे हैं. राज्यसभा के सांसद विवेक तनखा ने हाल ही में एक ट्वीट किया है जिसमें सतना जिले के कलेक्टर और नगर निगम के आयुक्त को संघ के एक कार्यक्रम में ‘ध्वज प्रणाम’ करते हुए दिखाया गया है.

सिद्धांतों के प्रति निष्ठा की कमी

हालांकि संघ से जुड़े पुराने कार्यकर्ता मानते हैं कि आक्रामकता उनके ‘मूल सिद्धांत के ख़िलाफ़’ है. रघुनन्दन शर्मा 60 के दशक में संघ से जुड़ गए थे और कई वर्षों तक प्रचारक रहे. वो भारतीय जनता पार्टी के विधायक भी रहे और सांसद भी. इसके अलावा उन्होंने प्रदेश में पार्टी के संगठन में कई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां निभाईं. प्रदेश के संगठन मंत्री भी रहे और उपाध्यक्ष भी.

बीबीसी से बात करते हुए वो क्षुब्ध नज़र आए. उनका कहना है कि मूल सिद्धांतों से हट जाने की वजह से हिंदुत्व पर भी असर पड़ा है और पार्टी पर भी. यही कारण है, वो बताते हैं, कि ‘ऐसी नौबत आ पहुंची है’ जब प्रदेश में पार्टी के लिए सात नेताओं को प्रभारी बनाना पड़ा है.

वो कहते हैं कि संघ और भारतीय जनता पार्टी – दोनों में निष्ठा की कमी साफ़ दिख रही है. वो कहते हैं, “मूल्यों की राजनीति के लिए हमें जाना जाता रहा है. अब सब कुछ बदल रहा है. स्वयंसेवक भी सुविधाभोगी हो रहे हैं और भाजपा के नेताओं और बाक़ी के राजनीतिक दलों के नेताओं में मध्य प्रदेश में तो अंतर करना ही मुश्किल हो गया है.”

शर्मा कहते हैं कि मध्य प्रदेश में राम वन गमन पथ की परियोजना 2007 से लंबित है.

वो कहते हैं, “राम के नाम के सहारे सरकार बनाई, उसी श्रीराम को भूल गए. जबकि कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ ने राम वन गमन पथ को विकसित करने के लिए बहुत काम किया है. अब सिर्फ़ बयानबाज़ी का दौर है. कुछ भी बोल रहे हैं मंत्री और नेता. इससे साख कमज़ोर ही हो रही है, हिन्दुओं के बीच भी.”

राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर भी मानते हैं कि जिस तरह की आक्रामकता हिंदूवादी संगठनों की सोशल मीडिया पर लोग देख रहे हैं उससे हिन्दुओं के बीच भी उनकी छवि ख़राब हो रही है.

उनका कहना था, “जिन बयानवीर नेताओं पर प्रधानमंत्री को नाराज़गी ज़ाहिर करनी पड़ी है उनमें मध्य प्रदेश के ही नेता प्रमुख हैं. भोपाल की सांसद के एक बयान पर प्रधानमंत्री को कहना पड़ा –मैं उन्हें दिल से माफ़ नहीं करूँगा.”

उज्जैन स्थित ‘मध्य प्रदेश इंस्टिट्यूट फ़ॉर सोशल साइंस एंड रिसर्च’ के निदेशक यतिंदर सिंह सिसोदिया को लगता है कि तमाम आक्रामकता के साथ जिस हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर भारतीय जनता पार्टी इतनी बेफिक्र रही है, अब उसे हालात बदलते हुए भी नज़र आने लगे हैं.

वो मानते हैं कि मध्य प्रदेश में मुसलामानों और ईसाइयों की आबादी उतनी नहीं है इसलिए ये बहुत मायने नहीं रखता है. सिर्फ़ भोपाल की दो सीटें और बुरहानपुर ही है जहां मुसलामानों के वोट मायने रखते हैं. इतनी सीटों वाली विधानसभा में इसका कोई बहुत बड़ा महत्व राजनीतिक दलों के लिए नहीं है.

सिसोदिया को लगता है कि ‘सत्ता विरोधी लहर’ से निपटने का एक ही उपाय भाजपा को नज़र आ रहा है –वो है आक्रामक हिंदुत्व.

हालांकि वो मानते हैं कि इससे कोई ‘ख़ास फर्क पड़ने वाला नहीं है’ क्योंकि बहुत दिनों तक एक चीज़ को ‘मतदाताओं के बीच भुनाया’ नहीं जा सकता है.

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