मोदी सरकार की नीतियों से क्या अदानी, अंबानी, टाटा जैसी बड़ी कंपनियों को फ़ायदा हो रहा है?

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DMT : New Delhi : (31 मार्च 2023) : –

‘भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़े बिज़नेस घरानों का दबदबा है. देश के कारोबार में विशाल कारोबारी समूहों की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है. लेकिन ये स्थिति अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है.’

‘अगर हम चाहते हैं कि भारत में कारोबारी प्रतिस्पर्द्धा बढ़े और बड़े बिज़नेस समूह अपने उत्पादों और सेवाओं को महंगा न बेचें तो इन विशाल कारोबारी समूहों का आकार छोटा करना होगा.’

भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अमेरिकी रिसर्च ग्रुप ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के एक नए पेपर में ये सलाह दी है.

फ़िलहाल न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, स्टर्न में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर आचार्य के मुताबिक़, 1991 में उदारीकरण को अपनाए जाने के बाद से इंडस्ट्रियल कॉन्सन्ट्रेशन ( एक ऐसी स्थिति जिसमें देश के कुल उत्पादन पर कुछ ही कंपनियां का वर्चस्व होता है) में तेज़ी से गिरावट आई है. लेकिन 2015 के बाद इसमें फिर तेज़ी का दौर शुरू हो गया.

बहरहाल, 2021 में भारत के पांच बड़े बिज़नेस घरानों- रिलायंस, अदानी, टाटा, आदित्य बिड़ला और भारती एयरटेल की स्थिति पर नज़र डालिए. इस साल गैर वित्तीय सेक्टरों में इनकी संपत्ति की हिस्सेदारी बढ़ कर लगभग 18 फ़ीसदी पर पहुंच गई. 1991 में ये 10 फ़ीसदी थी.

विरल आचार्य कहते हैं,” इन कंपनियों ने न सिर्फ़ बेहद छोटी कंपनियों की क़ीमत पर अपना विस्तार किया बल्कि ये पांच सबसे बड़ी कंपनियों की क़ीमत पर भी बढ़ीं. क्योंकि इस दौरान इन पांच सबसे बड़ी कंपनियों की बाज़ार हिस्सेदारी 18 फ़ीसदी से घट कर नौ फ़ीसदी हो गई.”

विरल आचार्य के मुताबिक़ ऐसा कई वजहों से हुआ होगा. इनमें इन बड़ी कंपनियों की ओर से मुश्किल में फंसी कंपनियों की खरीद, विलय और अधिग्रहण की बढ़ती भूख के अलावा सरकार की ओर से ऐसी औद्योगिक नीति को बढ़ावा देना शामिल है, जिसमें बड़ी कंपनियों को परियोजना आवंटित करने में तवज्जो दी जाती है.

इसमें कंपनियों की ओर से अपने उत्पाद और सेवाओं की क़ीमत अकल्पनीय रूप से कम रखे जाने की नीति भी शामिल है, जिस ओर से नियामक एजेंसियां अमूमन अपनी आंखें मूंदे रहती हैं.

अर्थव्यवस्था के लिए नुक़सानदेह

विरल आचार्य के मुताबिक़, ये प्रवृतियां चिंतित करने वाली हैं. इससे क्रोनी कैपिटलिज़्म की स्थिति बनती है- यानी ऐसी स्थिति जिसमें राजनीतिक संपर्क के ज़रिए बिज़नेस परियोजनाएं हासिल की जाती हैं.

ऐसे हालात में कॉरपोरेट कंपनियों के समूहों के अंदर ग़ैरक़ानूनी लेन-देन होता है. सरकार या राजनीतिक नेतृत्व की नज़दीकी रखने वाली कंपनियों को बैंकों से ज़्यादा से ज़्यादा क़र्ज़ मिलता है.

इससे इन कंपनियों को अपना विस्तार करने के लिए आसानी से फ़ंड मिलता है और लेकिन दूसरे प्रतिस्पर्द्धियों के लिए मुक़ाबला मुश्किल हो जाता है.

हाल में अदानी ग्रुप पर शॉर्ट सेलर फ़र्म हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट में समूह के ज़रूरत से ज़्यादा लेवरेज का सवाल उठाया गया था.

अदानी समूह पर हिंडनबर्ग की इस रिपोर्ट से अदानी ग्रुप के मार्केट कैपिटलाइेज़ेशन में भारी गिरावट आई थी और शेयर बाज़ार में निवेशकों के अरबों डॉलर डूब गए थे.

इससे पहले कुछ दूसरे देशों में इस तरह के मामलों के और भी गंभीर परिमाण हुए हैं.

आईएमएफ़ के पूर्व इंडिया हेड जोश फ़ेलमैन ने बीबीसी से इस मुद्दे पर बातचीत में कहा,” इस तरह की ‘नेशनल चैंपियन’ कंपनियां आसानी से ओवर लेवरेज हो जाती हैं और फिर धराशायी हो जाती हैं.”

”इससे देश की अर्थव्यवस्था को बहुत ज़्यादा नुक़सान होता है. कई एशियाई देशों में ऐसा हो चुका है. ख़ास कर 1998 में इंडोनेशिया में ऐसा बहुत ज़्यादा देखने को मिला था.,”

अर्थशास्त्री नोरियल रोबिनी ने फ़रवरी में प्रोजेक्ट सिंडिकेट के लिए लिखे अपने कॉलम ने भारत के उस इकोनॉमिक मॉडल पर चिंता व्यक्त की थी जिसमें कुछ ” नेशनल चैंपियनों” या ” विशाल निजी ओलिगार्क बिज़नेस घरानों” को अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से को नियंत्रित करने दिया जा रहा है. ”

उन्होंने लिखा,” इस नीति की वजह से ओलिगार्क बिज़नेस घराने पॉलिसी मेकिंग पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब रहे हैं और इससे उन्हें फ़ायदा हुआ है.”

ओलिगार्की वो स्थिति होती है जब कुछ लोग अपनी अक़ूत संपत्ति या बिज़नेस हितों से राजनीतिक ताक़त हासिल कर लेते हैं और नीतियों को प्रभावित करने लगते हैं.

रोबिनी ने कहा कि ऐसे हालात की वजह से इनोवेशन ख़त्म होने लगते हैं. देश के अहम उद्योगों में स्टार्ट-अप और दूसरी घरेलू कंपनियों की एंट्री बंद हो जाती है.

‘नेशनल चैंपियन’ कंपनियां बनाने की नीति में दिक़्क़त क्या है?

भारत की ओर से ”नेशनल चैंपियन” कंपनियां खड़ी करने के लिए अपनाई जा रही नीति कुछ ऐसी ही है जैसी 1990 के दशक में चीन, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया ने अपनाई थी.

ऐसी कंपनियां किसी परिवार की ओर से चलाए जाने वाले विशाल बिज़नेस ग्रुप होते थे. इन्हें चेबोल्स कहा जाता था. स्मार्टफोन बनाने वाली विशाल कंपनी सैमसंग चेबोल (परिवार के स्वामित्व वाली बड़ी कंपनी) का उदाहरण है. एक समय में दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था में इस विशाल कंपनी का वर्चस्व था.

आचार्य का कहना है, ”लेकिन भारत की तरह इन देशों ने अपनी विशाल कंपनियों को बचाने के लिए टैरिफ़ की आसमानी दरों का सहारा नहीं लिया.”

दूसरी ओर भारत अपने घरेलू उद्योगों और विशाल बिज़नेस समूहों को वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा संरक्षणवादी नीतियां अपनाता जा रहा है. और इन सबका असर दुनिया की अगली फ़ैक्ट्री बनने की भारत की कोशिश पर पड़ रहा है.

आचार्य और रोबिनी दोनों का कहना है कि अगर भारत वैश्विक स्तर पर ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बन कर उभरना चाहता है तो उस टैरिफ़ घटाना होगा और ‘चाइना प्लस वन’ ट्रेंड का फ़ायदा उठाना होगा.

इस ट्रेंड के तहत बड़ी कंपनियां अपना मैन्युफ़ैक्चरिंग बेस भारत और वियतनाम जैसे देशों में शिफ़्ट करना चाहती हैं.

विरल आचार्य का कहना है क इंडस्ट्रियल कॉन्सन्ट्रेशन का घरेलू अर्थव्यवस्था पर असर पड़ सकता है. बाज़ार में ‘बिग फ़ाइव’ की बढ़ती ताक़त लगातार बढ़ती मुख्य महंगाई (कोर इन्फ़्लेशन रेट) दर को और ऊंचा बनाए रख सकती है.

आचार्य ने अपने पेपर में लिखा है,” हालांकि इस बारे में एक विस्तृत जांच की ज़रूरत है, लेकिन हम पाते हैं कि मार्केट पावर और कम लागत लगा कर ज़्यादा क़ीमत वसूलने के बीज अनौपचारिक रिश्ता तो है ही.”

उनका कहना है कि इन विशाल कंपनियों के पास अभूतपूर्व प्राइसिंग पावर है और वे इंडस्ट्री में दूसरी कंपनियों की तुलना में इस मामले में फ़ायदे की स्थिति में हैं.

बड़ी कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने के तर्क में कितना दम है?

प्राइसिंग पावर का मतलब ये है कि ये बड़ी कंपनियां लंबे समय तक अपने उत्पादों और सेवाओं की क़ीमत कम रख सकती हैं. इससे प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों के लिए बाज़ार से टिकना मुश्किल हो जाता है.

लेकिन कुछ दूसरे अर्थशास्त्रियों ने बीबीसी से कहा है कि उन्हें इस अंतर्संबंध पर संदेह है.

फ़ेलमैन कहते हैं,”अगर ‘बिग फ़ाइव’ कंपनियां किसी नए सेक्टर में घुसती हैं तो इसमें कोई शक़ नहीं है कि वो और बड़ी बन सकती हैं. लेकिन उस सेक्टर की प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ सकती है और क़ीमतें घट सकती हैं.”

इसका सबसे बड़ा उदाहरण रिलायंस इंडस्ट्रीज़ की कंपनी जियो का टेलीकॉम सेक्टर में प्रवेश है. उसके घुसते ही इस सेक्टर में सेवाओं की क़ीमतें घट गईं.

बैंक ऑफ़ बड़ौदा के चीफ़ इकोनॉमिस्ट मदन सबनवीस कहते हैं कि इस थ्योरी के पक्ष में ”पर्याप्त सबूत नहीं हैं.”

वो कहते हैं,” एयरलाइंस सेक्टर का उदाहरण ले लीजिए. इन दिग्गज कंपनियों में से अधिकतर की इस सेक्टर में मौजूदगी नहीं है. इस सेक्टर में छोटी कंपनियों का वर्चस्व है. फिर भी किराया लगातार बढ़ता जा रहा है.

वो कहते हैं उपभोक्ता के स्तर पर जो सेक्टर ‘कोर इन्फ़्लेशन’ (खाद्य और ईंधन की क़ीमतों को छोड़ कर) को रफ़्तार देती हैं, उनमें इन विशाल कंपनियों की मौज़ूदगी नहीं है. जैसे- मनोरंजन, शिक्षा, हेल्थ, घरेलू सामान, कंज़्यूमर केयर वगैरह.

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