रूस के वागनर समूह जैसी किराये की सेनाएँ दुनिया में कैसे करती हैं काम

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DMT : रूस  : (29 जून 2023) : –

प्राइवेट आर्मी वागनर के प्रमुख येवगेनी प्रिगोज़िन शुक्रवार के असफल विद्रोह के बाद बेलारूस पहुँच चुके हैं. बेलारूस के नेता अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने मंगलवार को इसकी पुष्टि की है.

मंगलवार को ही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने सेना को संबोधित करते हुए कहा कि वागनर विद्रोह के विफल होने के बाद उन्होंने “गृह युद्ध रोक दिया है.”

वागनर ग्रुप के विद्रोह ने यूक्रेन से युद्ध में जुटे राष्ट्रपति पुतिन को जिस तरह से कठिन स्थिति में डाला है उससे प्राइवेट सेनाओं की भूमिकाओं पर सवाल उठाये जाने लगे हैं.

भाड़े के सैनिकों की अराजक दुनिया पर रोशनी डाली जाने लगी है.

उनकी दुनिया युद्धभूमि की दुनिया है, जहाँ युद्ध हो वहां वो मौजूद होते हैं. वो दुनिया के बड़े देशों के लिए काम करते हैं और यहाँ तक कि कुछ ग़ैर-सरकारी संगठन भी इनकी सेवा लेते हैं

वैसे तो प्राइवेट आर्मी कई देशों में सक्रिय हैं और इनकी संख्या घटती-बढ़ती रहती है, लेकिन आम तौर पर रूस का वागनर ग्रुप और अमेरिका का एकेडमी (पुराना नाम ब्लैकवाटर) दो ऐसी जानी-मानी प्राइवेट सैन्य कंपनियां (पीएमसी) हैं जो हाल के वर्षों में विवादों में रही हैं.

शॉन मैकफ़ेट वाशिंगटन डीसी में नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं और सालों तक प्राइवेट आर्मी का हिस्सा रहने के बाद वो इस दुनिया पर दो किताबें और कुछ उपन्यास लिख चुके हैं.

बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत में वो कहते हैं कि प्राइवेट आर्मी या किराये के सेनाएँ अपने-आप में एक उद्योग हैं.

वो कहते हैं, “मैंने किताबें इसलिए लिखीं ताकि मैं लोगों को मर्सेनरीज़ (किराये के सैनिक) या प्राइवेट फ़ौजियों की ज़िन्दगी के बारे में बता सकूँ जो ख़तरों से भरा है. ये उद्योग बिना लगाम के आगे बढ़ता ही चला जा रहा है जिसे दुनिया के बड़े देश गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.

इसकी शुरुआत 1990 के दशक में हुई लेकिन सरकारें इस पर लगाम लगाने में सुस्त रही हैं. अगर ये इसी तरह से आगे बढ़ता रहा तो अंतरराष्ट्रीय रिश्तों पर इसका असर होगा. लोग प्राइवेट आर्मी बनाने की सोचने लगेंगे. कल एलोन मस्क (ट्विटर और टेस्ला के मालिक) अपनी निजी फ़ौज बना सकते हैं. कोई भी प्राइवेट आर्मी रख सकता है. ये रुझान जारी रहा तो दुनिया बदल जाएगी, अराजकता फैल जाएगी.”

62 वर्षीय प्रिगोज़िन राष्ट्रपति पुतिन का कारनामा हैं. राष्ट्रपति पुतिन ने 2014 में वागनर का गठन किया था क्योंकि उनका मकसद दुनिया भर में रूसी प्रभाव को फिर से स्थापित करना था.

दिल्ली में राजनीति और विदेशी मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर सुव्रोकमल दत्ता कहते हैं कि वागनर ग्रुप के बग़ावत के कारण ऐसा लग रहा था कि पुतिन के शासन पर संकट आ गया है.

इस ग्रुप के लड़ाकों की संख्या 20 से 35 हज़ार के बीच है और इसने दक्षिण और पूर्वी यूक्रेन में बड़े पैमाने पर कामयाबी हासिल की है यूक्रेन की फ़ौज के विरुद्ध.

क्रीमिया पर जब रूस ने 2014 में क़ब्ज़ा किया था तब भी इस ग्रुप का एक बड़ा योगदान रहा था.

प्राइवेट सेनाओं की गतिविधियाँ विवादास्पद रही हैं. मसलन, सितंबर 2007 में इराक़ की राजधानी बग़दाद में एक नरसंहार हुआ. इसमें अमेरिका की प्राइवेट सुरक्षा कंपनी ब्लैकवाटर वर्ल्डवाइड (जिसे अब एकेडमी के नाम से जाना जाता है) के सैनिक शामिल थे, जिन्हें इराक़ में सुरक्षा सेवाएँ देने के लिए अमेरिकी सरकार ने ठेका दिया था.

आरोप है कि ब्लैकवाटर कर्मियों ने सामने से आने वाले एक वाहन से ख़तरा महसूस किया और भीड़भाड़ वाले चौराहे पर गोलियों की बौछार कर दी, वाहनों और पैदल चलने वालों पर अंधाधुंध गोलीबारी की.

गोलीबारी में 17 इराक़ी नागरिक मारे गए और कई अन्य घायल हो गए. पीड़ितों में पुरुष, महिलाएं और बच्चे शामिल थे, जिनमें से कई निहत्थे थे और क़ाफ़िले के लिए कोई स्पष्ट ख़तरा नहीं था. इस घटना के ख़िलाफ़ इराक़ी सरकार ने कड़ा विरोध प्रकट किया, साथ ही इसकी कड़ी अंतरराष्ट्रीय आलोचना भी हुई.

नरसंहार की अमेरिकी जांच ने निष्कर्ष निकाला कि ब्लैकवाटर ठेकेदारों का बल प्रयोग अत्यधिक और अनुचित था. अमेरिकी जस्टिस डिपार्टमेंट ने बाद में इस घटना में शामिल कई ब्लैकवाटर कर्मियों पर हत्या का आरोप लगाया.

इस घटना ने इराक़ में निजी सुरक्षा ठेकेदारों की विवादास्पद भूमिका को उजागर किया.

इस घटना के बाद युद्धभूमि पर सक्रिय निजी सैन्य कंपनियों की निगरानी के बारे में व्यापक बहस छिड़ गई.

प्रोफ़ेसर शॉन मैकफ़ेट अफ्रीका के कई देशों में प्राइवेट आर्मी का हिस्सा रह चुके हैं, वे कहते हैं कि इन सैनिकों की कोई जवाबदेही नहीं है इसलिए सरकारें इनका इस्तेमाल करती हैं.

वो कहते हैं, “यह भाड़े के सैनिकों को काम पर रखने का ख़ास सेलिंग पॉइंट है. अगर कोई सरकारी सैनिक किसी की हत्या करेगा तो उसका कोर्टमार्शल होगा. लेकिन प्राइवेट आर्मी ग्रुप का कोई सैनिक वही काम करेगा वो अपने घर वापस लौट जाएगा”.

भाड़े के सैनिकों का इतिहास

भाड़े के सैनिकों की भूमिका उतनी ही पुरानी है जितना हमारा इतिहास. वो सदियों से व्यक्तिगत फ़ायदे, राजनीतिक हितों या वैचारिक कारणों से लड़ाइयों में शामिल होते रहे हैं.

पूरे इतिहास में, प्राइवेट सेनाओं को अलग-अलग कारणों से इस्तेमाल किया गया है, जिसमें राज्य की रेगुलर आर्मी की मदद करना, वाणिज्यिक हितों की रक्षा करना और विशेष सैन्य अभियान चलाना शामिल है.

प्राचीन मिस्र में फ़िरौन ने पड़ोसी क्षेत्रों से भाड़े के सैनिकों को नियुक्त किया और एक स्थायी सेना बनाए रखी.

प्राचीन ग्रीस में एथेंस और स्पार्टा जैसे शहर-राज्य अक्सर अपने सैन्य बलों को मजबूत करने के लिए भाड़े के सैनिकों को काम पर रखते थे, जिन्हें “हॉपलाइट्स” के नाम से जाना जाता था.

प्राचीन रोमन साम्राज्य ने अपनी सेनाओं की पूर्ति के लिए जर्मनिक जनजातियों जैसे भाड़े के सैनिकों को काम पर रखा था. सम्राटों ने व्यक्तिगत अंगरक्षक इकाइयाँ भी गठित की थीं.

औपनिवेशिक युग और पुनर्जागरण

यूरोपीय इनोवेशन: डच ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी निजी कंपनियों ने अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए निजी सेनाओं की स्थापना की.

पुनर्जागरण इटली: वेनिस और फ्लोरेंस जैसे शक्तिशाली शहर-राज्यों ने अपनी ओर से युद्ध लड़ने के लिए किराये की सेनाओं को नियुक्त किया.

साम्राज्यवाद का युग

यूरोपीय साम्राज्य: उपनिवेशवाद के चरम के दौरान, यूरोपीय शक्तियों ने अपने उपनिवेशों का विस्तार करने और उन पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए निजी सेनाओं और भाड़े के सैनिकों को नियुक्त किया.

ब्रिटिश साउथ अफ़्रीका कंपनी और कांगो फ़्री स्टेट की फ़ोर्स पब्लिक जैसी कंपनियों के पास अपनी निजी सेनाएँ थीं.

अमेरिकी क्रांति: अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध के दौरान अमेरिकी उपनिवेशवादियों और ब्रिटिश साम्राज्य दोनों ने भाड़े के सैनिकों का इस्तेमाल किया था.

आधुनिक युग में भाड़े की सेनाओं का प्रयोग

उपनिवेशवाद के बाद के संघर्ष: निजी सैन्य कंपनियों (पीएमसी) को 20वीं सदी के अंत में प्रमुखता मिली. उन्हें सरकारों और ग़ैर सरकारी संस्थाओं की ओर से कई युद्धों में हिस्सा लिया.

इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान युद्ध: इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के दौरान अमेरिका और उसके सहयोगियों ने ब्लैकवाटर जैसी पीएमसी पर बहुत अधिक भरोसा किया. इन पीएमसी ने सुरक्षा, साजो-सामान संबंधी सहायता और अन्य सेवाएं प्रदान कीं.

समसामयिक संचालन: पीएमसी दुनिया भर में संघर्षों और संघर्ष के बाद के माहौल में भूमिका निभाती रहती है, हालाँकि, जवाबदेही, पारदर्शिता और संभावित मानवाधिकारों के हनन के मामले में स्थिति चिंताजनक है.

भारत में प्राइवेट आर्मी का इतिहास

डॉ सुरवोकमल दत्ता के मुताबिक़, विजयनगर साम्राज्य में फ़ौज का एक हिस्सा था जिसमें उज़्बेकिस्तान, कज़ाकस्तान जैसे मध्य एशिया के देश या फिर अफ़ग़ानिस्तान और ईरान जैसे देशों से आने वाले लड़ाके शामिल होते थे.

उनको बाक़ायदा शुल्क दिया जाता था, वो कॉन्ट्रैक्ट पर काम करते थे और विजयनगर साम्राज्य ने इनका अहमदनगर के सुल्तानों के विरुद्ध और गोलकुंडा और हैदराबाद के निज़ाम के ख़िलाफ़ बहुत बेहतरीन इस्तेमाल किया था.

वो कहते हैं, “चोल साम्राज्य के विस्तार में भी मध्य एशिया के लोगों से बनी प्राइवेट आर्मी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के दौरान भी प्राइवेट फौजियों का इस्तेमाल काफी आम था.

कोलोनियल साम्राज्य की बात करें तो जब ये नई जगहों और नए देशों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे तो उस दौरान भी प्राइवेट फ़ौज का बेहतरीन इस्तेमाल किया जा रहा था. क़ब्ज़ा किए गए देशों के बहुत सारे लोगों को बल के ज़ोर पर प्राइवेट आर्मी की तरह इस्तेमाल किया जाता था और जंग के मैदान में बर्बरतापूर्ण उनका इस्तेमाल होता था”

क्या इनका इस्तेमाल ग़ैर-क़ानूनी है, क्या इन्हें रेगुलेट किया जाता है?

डॉ सुरवोकमल दत्ता कहते हैं कि इन पर निगरानी रखना ज़रूरी है जिसके लिए एक अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन की ज़रुरत है, एक क़ानून की ज़रुरत है.

वो कहते हैं, “जिस तरह से 21वीं शताब्दी में अमरीका, यूरोप और रूस ने प्राइवेट आर्मी का दूसरे देशों पर क़ब्ज़ा करने, देशों की सरकारों को अस्थिर बनाने और अपनी नीतियों को लागू करने के लिए उससे अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन हुआ है, वियना कन्वेंशन का उल्लंघन किया गया है.

अमेरिका एक जीता जागता उदाहरण है. इराक में जिस तरह से प्राइवेट आर्मी का इसने इस्तेमाल किया वो सभी अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन था. नतीजा ये हुआ है कि मानवाधिकारों का बुरी तरह से उल्लंघन हुआ है. मैं समझता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समझौता होना चाहिए ताकि प्राइवेट आर्मी का इस्तेमाल रोका जा सके अब समय आ गया है कि इस पर रोक लगनी चाहिए”

प्रोफेसर शॉन मैकफ़ेट का तर्क है, “प्राइवेट आर्मी और भाड़े के सैनिकों को रोकने के लिए क़ानून बनाने या उन्हें रेगुलेट करने में दो बाधाएं आती हैं. एक तो संयुक्त राष्ट्र की सिक्योरिटी काउंसिल के पांच परमानेंट सदस्य बड़े देश हैं जो प्राइवेट आर्मी का सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं. उदाहरण के तौर पर इनका इस्तेमाल अमेरिका सबसे अधिक करता है.”

उनके मुताबिक़ दूसरी बाधा है, “अगर आप एक अच्छा अंतरराष्ट्रीय क़ानून भी बनाते हैं तो उदाहरण के लिए, बेलारूस के अंदर भाड़े के फौजियों को कौन गिरफ़्तार करेगा? लीबिया, यमन, इराक में कौन जाकर उन्हें गिरफ़्तार करेगा. संयुक्त राष्ट्र ये नहीं कर सकता. कुछ ऐसे लोग हैं जो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की मांग कर रहे हैं लेकिन ये केवल एक कल्पना है.”

शॉन मैकफ़ेट जैसे विशेषज्ञों और प्राइवेट आर्मी में काम कर चुके लोगों के मुताबिक़ ये उद्योग बढ़ने वाला है और बढ़ रहा है, इसे कोई रोक नहीं सकता.

उनके अनुसार बड़ी ताक़तें उनका इस्तेमाल कर रही हैं जो चिंता का विषय है.

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