श्रीलंका में राष्ट्रपति भवन में घुसने वाले प्रदर्शनकारी अब निराश क्यों

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DMT : श्रीलंका  : (10 जुलाई 2023) : –

बंदरगाह पर काम करने वाले 54 वर्षीय उडेनी कालूथांत्री पिछले साल अचानक रातोंरात सनसनी बन गए थे और इसका उनकी नौकरी से कोई संबंध नहीं था.

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में प्रदर्शनकारियों के राष्ट्रपति भवन में घुसने के कुछ दिन बाद कालूथांत्री का एक वीडियो सामने आया था, जिसमें वो एक बेड पर राष्ट्रपति के ध्वज को लपेटे सोये थे.

युवाओं के राष्ट्रपति भवन के भीतर बने स्वीमिंग पूल में कूदते हुए और आलीशान बेड पर उछलते हुए तस्वीरें इससे पहले ही दुनियाभर में वायरल हो गईं थीं.

कालूथांत्री का वीडियो उन सभी काव्यात्मक प्रमाणों का हिस्सा हो गया था, जिनसे पता चल रहा था कि कैसे श्रीलंका के लाखों लोग भ्रष्ट और अयोग्य समझी जाने वाले राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के शासन से तंग आए थे.

इसके बाद जल्द ही राजपक्षे देश छोड़कर भाग गए और कुछ दिन बाद पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया. इसे अभूतपूर्व जनआंदोलन की एक बड़ी जीत के रूप में पेश किया गया था, लेकिन इसके एक साल बाद श्रीलंका बहुत अलग नज़र आता है.

लोगों का संघर्ष

साल 2022 की शुरुआत में, श्रीलंका में महंगाई तेज़ी से बढ़ी. विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली हो गया और देश में ईंधन, खाद्य सामग्री और दवाओं की किल्लत हो गई.

देश की आज़ादी के बाद के इस सबसे बुरे आर्थिक संकट में लोगों को दिन में 13 घंटों तक की बिजली कटौती का सामना करना पड़ा.

बहुत से लोगों ने इन हालात के लिए राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके परिवार को ज़िम्मेदार बताया. उनकी ख़राब आर्थिक नीतियों को विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली होने की वजह माना गया.

राजपक्षे परिवार पर भ्रष्टाचार करने और जनता के पैसों को ठिकाने लगाने के आरोप भी लगे.

लेकिन राजपक्षे परिवार ने इन सभी आरोपों को ख़ारिज कर आर्थिक हालात के कुछ और ही कारण बताये. तर्क दिया गया कि कोविड महामारी के बाद पर्यटन में आई गिरावट और यूक्रेन युद्ध के बाद तेल के बढ़ते दाम संकट की वजह बनें.

पिछले साल जब राजधानी कोलंबो के चर्चित सार्वजनिक स्थल गाले फेस ग्रीन पर लोगों की भारी भीड़ जुटी तब मैं भी कोलंबो में ही था.

प्रदर्शन दिन-रात जारी रहे, शाम के वक़्त भीड़ और ज़्यादा बढ़ जाती. परिवार, छात्र, पादरी, क्लर्क, बौद्ध भिक्षु, सभी तरह के लोग इन प्रदर्शनों का हिस्सा होते.

गोटा गो होम का नारा देशभर में गूंजने लगा और इन प्रदर्शनों ने श्रीलंका के तीन मुख्य समुदायों- सिंहला, तमिल और मुसलमानों, को एकजुट कर दिया.

कुछ सप्ताह बाद प्रदर्शनकारियों के राष्ट्रपति भवन में घुसने के साथ ये प्रदर्शन अपने अंजाम तक पहुंचे. प्रदर्शनकारियों का मक़सद राजपक्षे को सत्ता से बाहर करना था. कालूथांत्री भी राष्ट्रपति भवन में घुसने वाले लोगों में शामिल थे.

जब प्रदर्शनकारी महल में घुसे, राजपक्षे वहाँ नहीं थे. प्रदर्शनकारियों ने इसे अपना ही घर बना लिया और जब यहाँ से गए तो किताबों से लेकर बेड शीट तक यादगार के रूप में उठा ले गए.

कालूथांत्री कहते हैं, “मैं राष्ट्रपति के ध्वज अपने साथ ले गया क्योंकि मैंने सोचा था कि उन अधिकारिक प्रतीकों के बिना राजपक्षे राष्ट्रपति की तरह काम नहीं कर पाएंगे.”

श्रीलंका में राष्ट्रपति के ध्वज हर राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान अलग होते हैं और जब कोई नया राष्ट्रपति कार्यभार संभालता है तो ये ध्वज भी बदल जाते हैं.

इस घटना के पांच दिन बाद राजपक्षे देश से भाग गए और सिंगापुर से उन्होंने अपना इस्तीफ़ा भेजा. इसे अरागलाया या जन संघर्ष, जैसा कि इसे कहा गया था, की जीत के रूप में देखा गया.

इसके कुछ महीने पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि राजपक्षे परिवार की सत्ता का ऐसा पतन हो सकता है.

राजनीतिक रूप से लोकप्रिय इस परिवार को साल 2009 में तमिल विद्रोहियों को कुचलने और 25 सालों से चले आ रहे गृहयुद्ध को समाप्त करने का श्रेय दिया गया.

लेकिन अब एक साल बाद, प्रदर्शनकारी परेशानी झेल रहे हैं, जबकि राजपक्षा और कई अन्य राजनेता जो जनता के ग़ुस्से का शिकार हुए थे फिर से देश में वापस लौट आए हैं और शक्तिशाली स्थिति में हैं.

तो फिर हुआ क्या?

दमन

राजपक्षे के देश छोड़ने के बाद विपक्ष के वरिष्ठ नेता रनिल विक्रमासिंघे को संसद में हुए मतदान के बाद नया राष्ट्रपति चुना गया था. उन्हें सदन में बहुमत प्राप्त राजपक्षे की पार्टी ने समर्थन दिया था.

विक्रमासिंघे को चुने जाने के कुछ घंटे के भीतर ही गाले फेस से भीड़ को हटाने के लिए सेना को तैनात कर दिया गया. सैनिक मौक़े पर पहुँचे और प्रदर्शनकारियों के टेंट उखाड़ दिये और सामान ज़ब्त कर लिया.

कालूथांत्री ने भी अपने आप को पुलिस के सामने पेश कर दिया और उन्हें राष्ट्रपति के ध्वज के अपमान में 21 दिन हिरासत में बिताने पड़े. उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा अभी भी चल रहा है.

वह कहते हैं, “मुझे कोई अफ़सोस नहीं है. मैंने ये देश और लोगों के लिए किया था.” उन्हें दो महीने के लिए नौकरी से भी निलंबित कर दिया गया था.

उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि श्रीलंका के लोग राजपक्षे को देश से बाहर भेजने में तो कामयाब रहे लेकिन देश में एक नई राजनीतिक संस्कृति शुरू नहीं कर सके.

राजपक्षे के जाने और नई सरकार के ईंधन और अन्य ज़रूरी सामानों की कमी को दूर करने के लिए प्रयास करने के बाद अधिकतर प्रदर्शनकारी अपनी आम ज़िंदगी में लौट गए.

इसके बाद जो प्रतिबद्ध प्रदर्शनकारी बचे थे उन्हें हटाने के लिए सरकार ने अपने पास मौजूद हर तरीक़े का इस्तेमाल किया.

इसके कुछ सप्ताह बाद गोटबाया राजपक्षे और उनके भाई बासिल राजपक्षे देश लौट आए.

पूर्व राष्ट्रपति अब एक आलीशान सरकारी बंगले में रह रहे हैं जबकि उनकी कैबिनेट का हिस्सा रहे कई सदस्यों को अब फिर से पद मिल गए हैं.

जिन लोगों ने सरकार के ग़ुस्से का सामना किया, उनमें वसंधा मुदालिगे भी शामिल हैं.

वो एक वामपंथी कार्यकर्ता हैं और इंटर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व संयोजक हैं. वो प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहे लोगों में शामिल थे.

मुदालिगे को बेहद सख़्त आतंकवाद निरोधक क़ानून (पीटीए) के तहत गिरफ़्तार किया गया था और पांच महीनों से अधिक समय तक जेल में रहे.

मुदालिगे कहते हैं, “अगर अदालत राहत नहीं देती तो मुझे और भी लंबा वक़्त जेल में बिताना पड़ता. सरकार जनता के मुद्दों का समाधान किए बिना विरोध का दमन नहीं कर सकती है.”

इस साल फ़रवरी में कोलंबो की एक अदालत ने मुदालिगे पर लगे आतंकवाद के आरोपों को ख़ारिज कर दिया और उनकी रिहाई का आदेश दिया. जज ने कहा कि सरकार ने क़ानून का ग़लत इस्तेमाल किया.

कई अन्य प्रदर्शनकारियों पर भी अलग-अलग क़ानूनों के तहत मुक़दमे दर्ज किए गए.

कुछ को गिरफ़्तार करके जेल भी भेजा गया. बावजूद इसके प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाले कई लोग गर्व की भावना के साथ आंदोलन को देखते हैं.

चर्चित कार्यकर्ता और मानवाधिकार अधिवक्ता स्वास्तिक अरुलिंगम कहती हैं कि ये आंदोलन ऐतिहासिक था, स्वतःस्फूर्त था और देश के हर वर्ग के लोगों ने इसमें हिस्सा लिया.

वो कहती हैं, “लेकिन हम इस जनआंदोलन का दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल नहीं कर सके. जैसे, राजनीतिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ और जो लोग जनता के पैसों की लूट के लिए ज़िम्मेदार थे, वो अब भी सत्ता में हैं.”

हालांकि, फ़िलहाल प्रदर्शन शांत हो गए हैं, समाधि ब्रह्मानायके जैसी कुछ प्रदर्शनकारी ये मानते हैं कि लोगों के ग़ुस्से से साफ़ हो गया है कि जनता की शक्ति बदलाव ला सकती है.

ब्रह्मानायके कहती हैं, “प्रदर्शनों ने हमें उम्मीद और विश्वास दिया है. हमें ये अहसास हुआ है कि साथ मिलकर हम क्या हासिल कर सकते हैं. अब कई युवा राजनेता बनना चाहते हैं. हमें राजनीतिक बदलाव की दिशा में काम करना होगा.”

इस साल मार्च में विक्रमासिंघे की सरकार आईएमएमफ़ से 2.9 अरब डॉलर का राहत पैकेज हासिल करने में कामयाब रही. इससे श्रीलंका की सरकार के पास ईंधन, खाद्य सामग्री और कुकिंग गैस की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त डॉलर हैं. साथ ही सरकार अन्य अब अन्य क़र्ज़दाताओं के पास भी जा सकता है.

देश में पर्यटन बढ़ रहा है और विदेश में रहने वाले श्रीलंकाई नागरिक अधिक पैसा देश भेज रहे हैं. ऐसे में देश फिर से पहले जैसे हालात की तरफ़ लौटने लगा है लेकिन अभी भी उसके सामने बहुत चुनौतियां हैं.

श्रीलंका का घरेलू और विदेशी क़र्ज़ा कुल मिलाकर 80 अरब डॉलर के क़रीब है और इस क़र्ज़ को लौटाना एक बड़ी चुनौती होगा. श्रीलंका क़र्ज़दाताओं के साथ सितंबर तक क़र्ज़ पुनर्गठन करने के लिए चर्चाएं कर रहा है.

सरकार डॉलर-मूल्य वाले बांड में निवेशकों की पूंजी में 30% राइट-ऑफ का आह्वान कर रही है. लेकिन विपक्ष का कहना है कि इससे श्रीलंका के कर्मचारियों के पेंशन फंड पर असर पड़ सकता है.

इन प्रस्तावों ने कई श्रीलंकाई लोगों के मन में चिंताएं पैदा कर दी हैं और कुछ ने मौजूदा शांति को हल्के में न लेने की चेतावनी दी है.

अरुलंगम कहते हैं, “देश अभी भी आर्थिक संकट के हालात में है. रोज़मर्रा के ख़र्च तो बढ़ ही रहे हैं, अब रिटायरमेंट के बाद की भी चिंताएं हैं. अगर लोगों के जीवनस्तर में सुधार नहीं हुआ तो वो फिर से सड़कों पर उतर सकते हैं.”

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