सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस को इतनी तवज्जो क्यों मिल रही?

Hindi International

DMT : सऊदी अरब : (15 जून 2023) : –

सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान बुधवार को फ्रांस के दौरे के लिए रवाना हो गए हैं.

फ्रांसीसी राष्ट्रपति के दफ़्तर ने बताया है कि शुक्रवार को राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और सऊदी के प्रधानमंत्री की मुलाक़ात पेरिस में मौजूद एलिज़े पैलेस में होगी.

इससे पहले बीते साल जुलाई 28 को सऊदी क्राउन प्रिंस ने पेरिस में मैक्रों से मुलाक़ात की थी. ये मुलाक़ात भी एलिज़े पैलेस में हुई थी

2018 में सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के बाद पश्चिमी मुल्कों की नाराज़गी झेलने के बाद पहली बार उन्होंने यूरोपीय संघ के किसी मुल्क का दौरा किया था.

इस दौरान दोनों के बीच हुई बातचीत की जितनी चर्चा हुई, उससे कहीं अधिक चर्चा हुई दोनों के बीच हुए 15 सेकंड के लंबे हैंडशेक की.

बात केवल फ्रांस के सऊदी अरब की तरफ़ हाथ बढ़ाने की नहीं है, इसी साल अप्रैल में मैक्रों तीन दिन के लिए चीन गए थे, जहाँ उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाक़ात की थी.

इस दौरे से ठीक बाद मैक्रों ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ताइवान मुद्दे पर यूरोप को चीन और अमेरिका के बीच नहीं आना चाहिए. उन्होंने कहा था कि यूरोप को अमेरिका पर अपनी निर्भरता घटानी चाहिए. उनके इस बयान की कड़ी आलोचना हुई थी.

हालांकि ये पहली बार नहीं था, जब मैक्रों ने अमेरिका के फ़ैसलों से दूरी बनाए रखने की कोशिश की और उनकी आलोचना भी हुई.

ऐसे में पेरिस में साल भर के भीतर एक बार फिर सऊदी क्राउन प्रिंस से मुलाक़ात के बाद अब ये चर्चा छिड़ गई है कि क्या फ्रांस अमेरिका से दूर जा रहा है.

अमेरिका को लेकर मैक्रों ने कब-क्या कहा?

अप्रैल 2023 – चीन के दौरे के वक़्त चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाक़ात के बाद बीजिंग से गुआंगचाऊ जाते वक़्त एक इंटरव्यू में मैक्रों ने ताइवान के मुद्दे पर कहा, “जो समस्याएं हमारी नहीं हैं, उनमें फँस कर यूरोप एक ‘बड़ा जोखिम’ मोल ले रहा है. यही चीज़ यूरोप को इसकी रणनीतिक स्वायत्तता अपनाने से रोक रही है.” चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है, वहीं अमेरिका ताइवान का समर्थन करता है और उसे हथियार भी देता है.

दिसंबर 2022 – यूक्रेन पर हमले के लिए मैक्रों ने रूस के ख़िलाफ़ सख्त प्रतिबंध लगाए. लेकिन नवंबर 2022 में जब बुख़ारेस्ट में नेटो की बैठक में जब 30 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए उसमें फ्रांस ने हिस्सा नहीं लिया. इससे चर्चा होने लगी कि रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी मुल्कों के गठबंधन में दरार पड़ गई है.

जून 2022 – मैक्रों ने रूस के लिए सुरक्षा गारंटी की बात की. उन्होंने कहा कि रूस को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए ताकि जब युद्ध ख़त्म हो तो कूटनीतिक रास्तों के ज़रिए बातचीत का दरवाज़ा खुला रहे. इस बयान के लिए उन्हें आलोचना झेलनी पड़ी.

मार्च 2022 – यूक्रेन युद्ध के बाद राष्ट्र के नाम एक संबोधन में मैक्रों ने कहा, फ्रांस को अपनी सुरक्षा और उर्जा सप्लाई को लेकर स्वतंत्र होने की ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि “हम अपनी रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकते. रक्षा के मामले में यूरोप के मुल्कों को नया कदम उठाने की ज़रूरत है.”

सितंबर 2021 – अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया और यूके के साथ मिलकर ऑकस का ऐलान किया तो फ्रांस ने इसका जमकर विरोध किया. फ़्रांस के विदेश मंत्री ज्यां य्वेस ले ड्रायन ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया पर ‘धोखा करने, भरोसा तोड़ने और अपमानित करने का आरोप’ लगाया. ऑकस समझौते के तहत अमेरिका ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बियों के निर्माण की टेक्नोलॉजी मुहैया कराना था. इससे फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के बीच परमाणु पनडुब्बियों को लेकर हुआ समझौता ख़त्म हो गया.

नवंबर 2019 – अमेरिका के उत्तरी सीरिया से अपने सौनिकों को हटाने को लेकर मैक्रों ने कहा कि अमेरिका को पहले नेटो से बात करनी चाहिए थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. उन्होंने साझा सुरक्षा की नेटो की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए और कहा नैटो “ब्रेन डेड” हो चुका है.

फ्रांस नेटो को संस्थापक सदस्यों में से एक है. उन्होंने ‘द इकोनॉमिस्ट’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि यूरोप को ख़ुद अपने भविष्य का मालिक बनना चाहिए और ख़ुद को भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में देखना चाहिए.

सितंबर 2017 – पेरिस में एक कार्यक्रम में मैक्रों ने कहा कि वो चाहते हैं कि संयुक्त सैन्य बल के ज़रिए “यूरोपीय संघ की अपनी स्वायत्त ताक़त होनी चाहिए.” उन्होंने कहा कि ये नेटो की जगह न ले बल्कि उसके साथ मिलकर काम करे.

क्या अमेरिका से दूर जा रहा फ्रांस?

तुर्की में सऊदी के पत्रकार जमाल खशोज्जी की हत्या के बाद क्राउन प्रिंस पर ही उंगली उठ रही थी. इसके बाद से पश्चिम के देश सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस से परहेज कर रहे थे. लेकिन पिछले साल फ्रांस ने सऊदी क्राउन प्रिंस का जिस तरह से स्वागत किया वह उम्मीद से परे था.

कहा जा रहा है कि फ़्रांस अब अमेरिका के मातहत नहीं रहना चाहता है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ फ्रांस चीन और रूस की अगुवाई वाले ब्रिक्स सम्मेलन में आना चाहता है. ब्रिक्स समिट इस साल दक्षिण अफ़्रीका में होने जा रहा है. ब्रिक्स में भारत भी है.

वो कहते हैं, “फ्रांस में हमेशा से ही ये विचार रहा है कि अमेरिका से अलग अपनी पहचान बनाए. यूरोप में भी नेतृत्व लेने की फ्रांस की महत्वाकांक्षा रही है.”

पंत कहते हैं, अमेरिका से अलग पहचान चाहने वाले मैक्रों देश के पहले नेता हैं, ये कहना सही नहीं होगा.

प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, “सऊदी अरब के मामले में एक तरफ़ ये पश्चिमी मुल्कों के साथ रिश्ते बेहतर करने की सऊदी अरब की प्रक्रिया का हिस्सा है, तो दूसरी तरफ फ्रांस उस पर अपनी पकड़ अलग तरीके से बनाना चाहता है.”

“अमेरीका और सऊदी के रिश्तों में बीते वक़्त खटास आई है. सऊदी क्राउन प्रिंस अब तक बाइडन प्रशासन को भूल नहीं पाए हैं. बाइडन रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, वो ख़ुद सऊदी अरब गए, उनके विदेश मंत्री भी सऊदी अरब गए, लेकिन मामला कुछ बनता नहीं दिख रहा. हालांकि इसका फ़ायदा चीन को मिल रहा है जो मध्य-पूर्व में अपना पैर फैलाने की कोशिश में है.”

वो कहते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ तो यूरोप के सभी देश फिर से अमेरिका पर निर्भर होते दिखे.

प्रोफ़ेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं, “वो स्ट्रैटिजिक ऑटोनोमी की बात कर रहे थे लेकिन मामला ख़ुद सुलझा नहीं पाए. यूरोप के सामने यूक्रेन का मुद्दा रणनीतिक तौर पर बड़ी चुनौती थी लेकिन जब तक अमेरिका मामले में शामिल नहीं हुआ वो रूस का जवाब तलाश नहीं कर पा रहे थे. दोनों के रिश्ते में ये एक तरह का विरोधाभास ज़रूर है.”

“लेकिन फ्रांस की एक परंपरा रही है कि वो इस तरह की बात कर अपना महत्व दिखाता है. लंबे वक्त से (10-15 साल से) जर्मनी की चांसलर रही एंगेला मर्केल को यूरोप का नेतृत्व करने वाले डीफैक्टो नेता के तौर पर देखा जाता रहा है. उनके जाने से बाद से वो जगह ख़ाली हो गई है और मैक्रों उस जगह को भरने की कोशिश कर रहे हैं.”

साल 2003 में जब अमेरिका ने इराक़ के शासक सद्दाम हुसैन को गद्दी से हटाने के लिए पर उस पर हमला किया तो फ्रांस के राष्ट्रपति जैकुअस चिराक ने इसका विरोध किया और कहा सेना के इस्तेमाल का फ़ैसला संयुक्त राष्ट्र का होना चाहिए.

इससे भी दशकों पहले 1966 में फ्रांस के राष्ट्रपति चार्ल्स डे गॉल्स ने अमेरिका से कहा कि उसे वियतमान से अपनी सेना को वापस बुला लेना चाहिए, अगर अमेरिका ऐसा करे तो युद्ध ख़त्म करने के लिए बातचीत की जा सकती है.

चीन फैक्टर

कुछ वक़्त पहले चीन की मध्यस्थता में लंबे वक़्त से एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे सऊदी अरब और ईरान के बीच फिर से कूटनीतिक रिश्ते बहाल हुए थे.

इसी साल मार्च में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सऊदी का दौरा किया था. उन्होंने चीनी मुद्रा युआन में तेल के व्यापार का ज़िक्र किया था.

प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, “फ्रांस एक तरह से अमेरिका की मदद ही कर रहा है. अगर सऊदी अरब पूरी तरह के चीन के खेमे में चला जाता है तो ये पश्चिमी देशों के लिए बड़ा नुक़सान होगा. कम वक़्त में देखें तो लग रहा है कि दोनों देश एक-दूसरे से अलग-अलग चल रहे हैं और हो सकता है कि फ्रांस को भी ये लग रहा हो कि वो अपनी अलग नीति पर चल रहा है, लेकिन मैक्रों परोक्ष रूप से अमेरिका की मदद कर रहे हैं.”

प्रोफ़ेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं, “जी7 और यूरोप के बड़े देश अलग-अलग बात भले ही करें लेकिन उनके हित आपस में जुड़ते हैं और जब बड़ी चुनौती आती है तो ये देश एक साथ हो जाते हैं.”

ऑकस से जुड़े घटनाक्रम का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं, “ये बात सच है कि उनकी अपनी सुरक्षा चिंताएं हैं और कभी-कभी रिश्तों में तल्खी आ जाती है लेकिन देखा जाए तो वो एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं जाते, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर मदद करने की कोशिश करते हैं.”

मैक्रों ने एक तरफ ताइवान के मुददे पर तटस्थ रहने की बात की, तो वहीं दूसरी तरफ़ मई में जी7 मुल्कों ने जो साझा दस्तावेज़ जारी किया उस पर हस्ताक्षर किए. इसमें लिखा गया था कि चीन मौजूदा वक़्त में वैश्विक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

युद्ध शुरू होने से पहले उन्होंने कई बार पुतिन से चर्चा की, लेकिन फिर बाद में जब युद्ध शुरू हुआ तो उन्होंने पश्चिमी मुल्कों के साथ यूक्रेन के लिए मदद का ऐलान किया.

बदल रहे समीकरण और तेल का मुद्दा

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद अमेरिका के साथ खड़े कुछ यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है. उनके लिए प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा स्रोत रूस ही था.

ऐसे में ये देश विकल्पों की तलाश करने लगे. सऊदी अरब को इसी विकल्प के रूप में देखा जा रहा है.

प्रोफ़ेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं, “एक वक़्त था जब दुनिया की भू-राजनीति तेल के इर्द-गिर्द थी, लेकिन अब चीज़ें बदल रही हैं. अमेरिका पहले तेल का बड़ा आयातक था लेकिन अब तेल का बड़ा निर्यातक बन चुका है.”

“रूस के साथ यूरोप के रिश्ते बिगड़े हैं और वो रूस से तेल का आयात बंद करने वाले हैं. ऐसे में रूस भारत-चीन जैसे मुल्कों में अपने बाज़ार तलाश रहा है. वहीं यूरोप सतत ऊर्जा और अमेरिका की तरफ़ रुख़ कर रहा है.”

हालांकि वो कहते हैं कि यूरोप और अमेरिका के रिश्तों को तेल के ही आईने में देखना उसे कम कर देखना होगा क्योंकि इनके रिश्ते तेल की राजनीति से कहीं आगे तक जाते हैं.

प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, “पश्चिमी देशों के सामने ऊर्जा सप्लाई बड़ी समस्या है. सऊदी क्राउन प्रिंस के पिछले दौरे में ये बड़ा मुद्दा था. चूंकि रूस पर प्रतिबंध थे, इसलिए ये मुल्क चाहते थे कि सऊदी अरब तेल की क़ीमतों को चढ़ने न दे. मैक्रों चाहेंगे कि उनकी मुलाक़ातों का कोई कारगर नतीजा निकले और वो अपने नागरिकों के लिए तेल और गैस की सप्लाई सुनिश्चित कर सकें. रही अमेरिका की बात तो वो भी अब यूरोप को बड़े बाज़ार के रूप में देख रहा है.”

प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, “पहले फिक्स्ड अलायंस हुआ करते थे, उसका ज़माना अब चला गया है. मौजूदा हालात तेज़ी से बदल रहे हैं और अभी वैश्विक स्तर पर मुल्कों में अनिश्चितता बनी हुई है. किसी को नहीं पता कि आने वाले वक़्त में किस तरह का ग्लोबल एजेंडा बनेगा. ऐसे में देश दूसरो से संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि भविष्य में उन्हें परेशानी न हो.”

वो कहते हैं कि फ्रांस इस मामले में अकेला नहीं है, मौजूदा वक़्त में सभी मुल्क इसी तरह का रास्ता अपना रहे हैं.

वो कहते हैं, “फ्रांस को देखें तो वो अमेरिका के साथ काम कर रहा है, यूरोपीय संघ के साथ मिलकर काम कर रहा है, चीन के साथ भी अलग स्तर पर रिश्ते रख रहा है. लेकिन वो कई मसलों पर अपना स्वतंत्र रुख़ भी अपना रहा है.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *