लगान के कचरा के बहाने बॉलीवुड में दलितों की हिस्सेदारी पर सवाल

Hindi New Delhi

DMT : नई दिल्ली : (15 जून 2023) : –

“कचरा ये खेल की आख़िरी गेंद है. हमका अभी जीतने के लिए पाँच दौड़ बाकी है. तुझे ही गेंद सीमा पार करनी होगी कचरा. नहीं तो तीन गुना लगान. हम सबकी ज़िंदगी तोहरे हाथ में है कचरा. कुछ कर कचरा.”

ये सीन है आमिर ख़ान की फ़िल्म लगान का जिसमें कचरा गाँव का एक दलित किरदार था. कचरा के किरदार को लेकर ज़ोमैटो कंपनी ने हाल ही में विज्ञापन निकाला था जिसे कुछ लोगों ने जातिवादी बताया.

ऐसे में सवाल यही है कि 2001 में आई लगान में कचरा का दलित किरदार वाक़ई कास्टिस्ट है ?

लगान में कचरा का किरदार निभाने वाले अभिनेता आदित्य लाखिया कहते हैं, “ कचरा बहुत मज़ूबत किरदार है. जब लगान रिलीज़ हुई थी तब तो किसी ने नहीं कहा कि कचरा का दलित किरदार अमानवीय तरीके से दर्शाया गया है. तो आज 25 साल बाद ये अमानवीय कैसे हो गया ?”

“ये चरित्र साल 1893 में बसा है, उस दौर के हिसाब से कचरा बहुत रेलेवेंट किरदार था, ज़ोमैटो के विज्ञापन से अगर किसी की भावना आहत हुई है, तो ये सही ही है कि विज्ञापन वापस लिया गया. हाँ बुरा ज़रूर लगा क्योंकि हमारी सोच अच्छी थी.”

ये सारा मामला तब शुरू हुआ जब निर्देशक नीरज घायवान ने ट्वीट कर लिखा, “आशुतोष गोवारिकर की ऑस्कर नामांकित फ़िल्म लगान का किरदार कचरा सिनेमा के इतिहास के सबसे अमानवीय किरदारों में से एक है.”

चंद्रभान प्रसाद अमरीका की जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी में एफ़िलिएटिड स्कॉलर हैं.

वे कहते हैं, “पहले दलितों के नाम ऐसे रखे जाते थे कि जिन्हें सुनकर घिन्न आए जैसे पड़ोह (ड्रेनेज), कतवारू यानी कचरा. तो आमिर ख़ान की फ़िल्म में या ज़ोमैटो ने किरदार का कचरा रखा तो आप ये समझिए कि आमिर खान जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके लिए भी ये स्वभाविक सोच का हिस्सा है, इसे पर्मानेंट रिकॉल कहते हैं क्योंकि ये बरसों से चला आ रहा है.”

हालांकि कचरा के किरदार से परे बड़ा सवाल है कि हिंदी सिनेमा में दलितों को कितना और कैसे दिखाया गया है ?

जाति के मुद्दों पर कई फ़िल्में बना चुके निर्देशक नागराज मुंजले ने 2022 में फ़िल्म झुंड बनाई थी जिसमें आंबेडकर वाला सीन काफ़ी चर्चित रहा.

बीबीसी मराठी से बातचीत में वे कहते हैं, “ये शायद पहली बार है कि अमिताभ बच्चन जैसे कोई इतना बड़ा हीरो बाबासाहेब के सामने हाथ जोड़े खड़ा था. ये मेरे लिए फ़क्र की बात थी.”

अछूत कन्या से लेकर सुजाता

जाति और सिनेमा को समझने के लिए भारत में सिनेमा के इतिहास में झाँकना होगा.यहाँ आज़ादी से पहले 1936 में बनी अछूत कन्या याद आती है जहाँ अशोक कुमार ऊंची जाति के हैं और देविका रानी दलित कन्या. इसी वजह से दोनों की शादी नहीं हो पाती.

फ़िल्म के आख़िर में रेलवे ट्रैक के पास देविका के पति और अशोक कुमार में ज़बरदस्त झगड़ा हो जाता है .दोनों को बचाने की कोशिश में ट्रेन देविका को काटते हुए चली जाती है. जातिवाद की कीमत आख़िर वो दलित कन्या ही चुकाती है.

आज़ाद भारत में 1959 में जब बिमल रॉय ने जाति पर फ़िल्म बनाई तो नायिका नूतन को एक ऐसी बेटी का रोल दिया जिसे ब्राह्मण परिवार ने गोद लिया है. लेकिन माँ नूतन को दिल से कभी स्वीकार नहीं कर पाती क्योंकि वो ‘अछूत’ परिवार से थी.

आख़िर में नूतन की माँ उसे तब जाकर स्वीकार करती है जब अपना ख़ून देकर नूतन माँ की जान बचाती है.

ख़ुद की स्वीकार्यता बनाने के लिए नूतन को ख़ुद को ‘नेक’ साबित करना पड़ता है.

काबिल दलित किरदारों की कमी तो नहीं है..

चंद्रभान प्रसाद इस बात पर भी सवाल उठाते हैं कि फ़िल्मों में जब दलित की बात होती है तो उसकी छवि यही क्यों होती है कि वो कमज़ोर है, विफल है, होंठ फटे हैं और बेनूर चेहरा है और नाम कचरा है और क्यों दलित हैंडसम नहीं हो सकता, वो विजेता नहीं हो सकता?

उनके मुताबिक दलितों के शोषण को दिखाना वास्तविकता दिखाना है लेकिन ये वास्तविकता सब्जेक्टिव है.

अपनी दलील को समझाते हुए वो कहते हैं, “क्या भारत के इतिहास में सफल, काबिल दलित आइकन नहीं है जिन पर फ़िल्में बन सकें ? बाबू जगजीवन राम भारत के शीर्ष नेता रहे हैं, बैटल ऑफ़ कोहिमा में चमार रेजिमेंट का अहम योगदान है, गुरु रविदास ने शास्त्रार्थ में सबको पराजित किया था. ये सब भी तो हैं.”

फ़िल्म अंकुर ने बोया विद्रोह का बीज

दरअसल 70 और 80 के दशक में जब पैरलल सिनेमा का ज़ोर था तो ऐसी कई फ़िल्में बनीं जिन्होंने दलितों के शोषण को बारीक़ी से दिखाया.

1974 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर में शबाना आज़मी (लक्ष्मी) और उसका गूंगा शराबी पति जाति, जेंडर और सत्ता के नाम पर होने वाले शोषण का चेहरा हैं.

गाँव का युवा ज़मींदार पढ़ा लिखा है, वो शबाना को अपना खाना बनाने के लिए रसोई में रखता है जबकि गाँव के लोग इसके ख़िलाफ़ हैं.

हालात के कारण शबाना और ज़मींदार के बीच रिश्ता बन जाता है. लेकिन एक दलित औरत के बच्चे का पिता बनना ज़मींदार को स्वीकार नहीं. बाद में लक्ष्मी का पति जब गाँव आता है तो ज़मींदार उसे कोड़ों से पिटवाता है.

ये सब देख रहा एक बच्चा फ़िल्म के आख़िरी सीन में ज़मींदार के घर पर पत्थर फ़ेंकता हैं और भाग जाता है. फ़िल्म अंकुर के इस आख़िरी सीन से एक मायने में ये समझा जा सकता है कि शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह का अंकुर फूट चुका है.

जाति के पार जाने की कोशिश

1984 में आई गौतम घोष की फ़िल्म पार इस शोषण को चरम सीमा के पार ले जाती है. पार बिहार के दो भूमिहीन दलित मज़दूरों की कहानी है जिनके घर जाति के नाम पर हुई हिंसा में जला दिए जाते हैं और भागकर वो कोलकाता आते हैं.

नौरंगिया (नसीरु्द्दीन) और रमा ( शबाना) को एहसास होता है कि यहाँ भी उनका कोई भविष्य नहीं. गाँव लौटने के लिए टिकट का पैसा कमाने के ख़ातिर वो एक आख़िरी ख़तरनाक काम करते हैं- 30 सुअरों के झुंड को नौरंगिया और गर्भवती रमा को उफ़नती नदी के उस पार ले जाना है.

लगभग 12 मिनट का ये सीन आपके रोंगटे खड़े कर देता है. उन्हें काम देने वाला आदमी कहता है- इस जाति के लोग जानवरों को संभालने में अच्छे होते हैं. सिने चौपाल नाम का यूट्यूब चैनल चलाने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की शिकायत भी यही है कि इन किरदारों को हमेशा कमज़ोर ही क्यों दिखाया जाता है.

दलित किरदारों के चित्रण को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन 80 के दशक तक ये किरदार फ़िल्मों में दिखते ज़रुर थे.

फ़िल्मों से ग़ायब हुए दलित किरदार

लेकिन 90 का दशक आते आते, जैसे -जैसे भारतीय सिनेमा ग्लोबल होना शुरु हुआ, बेंडिट क्वीन जैसी फ़िल्मों को छोड़ दें तो ये किरदार ग़ायब होने लगे.

फ़िल्म दामुल बनाने वाले प्रकाश झा ने 2011 में फ़िल्म आरक्षण बनाई.

तब शायद पहली दफ़ा या लंबे समय बाद मॉर्डन हिंदी सिनेमा में एक मेनस्ट्रीम हीरो सैफ अली ख़ान को दलित हीरो का रोल मिला जो पढ़ा लिखा है, सक्षम है और ईंट का जवाब पत्थर से देना जानता है.

मसान से न्यूटन-पढ़ा लिखा, मज़बूत दलित हीरो

दिल्ली की जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हरीश एस वानखेड़े दलित सिनेमा पर लिखते आए हैं.

वे कहते हैं, “सीमाओं के बावजूद हिंदी फ़िल्मों में बदलाव दिखने लगा है. जैसे फ़िल्म न्यूटन लीजिए. अमित मसूरकर की फ़िल्म में राजकुमार राव को एक नए तरह के दलित हीरो के तौर पर पेश किया गया है. “

हरीश वानखेड़े कहते हैं कि फिल्म में राव शिक्षित हैं और चुनाव करवाने जैसा अहम काम करता है.

वे कहते हैं, “राव का किरदार सरकारी अधिकारी के तौर पर वो कमज़ोर नहीं, वो नैतिक है, भ्रष्ट नहीं. जैसा हीरोइज़म जंज़ीर में अमिताभ ने दिखाया था वैसा ही रोल राजकुमार को दिया गया.”

“उसकी जाति का आप केवल अंदाज़ा लगा सकते हैं. आप उसके कमरे में बाबा साहेब अंबेडकर का फ़ोटो देख सकते हैं. जब वो शादी का प्रस्ताव ठुकराता है तो उसे घर से डाँट पड़ती है कि उसे ब्राह्मण या ठाकुर लड़की नहीं मिलने वाली. सबसे अहम है दलित महिलाओं के चित्रण में बदलाव. वेबसिरीज़ दहाड़ और कटहल में ये महिलाएँ पुलिस में हैं, उनकी अपनी गरिमा है और वो सशक्त हैं.”

इसकी मिसाल 2015 में नीरज घायवान की फ़िल्म मसान में भी दिखती है जिसमें हीरो विकी कौशल (दीपक) ने डोम समुदाय के एक लड़के का रोल किया है जिसका परिवार शवों को जलाता है.लेकिन इसमें उम्मीद भी है जहाँ इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा दीपक जाति के बंधनों से आगे निकलना चाहता है.

2019 में आर्टिकल 15 में भी जाति और जेंडर को लेकर सवाल खड़े किए गए हैं. फ़िल्म के एक सीन में पुलिस अधिकारी बने आयुष्मान खुराना अपने सीनियर से पूछते हैं, “ सर ये तीन लड़कियां अपनी दिहाड़ी में सिर्फ़ तीन रुपए अधिक मांग रही थीं.जो मिनरल वाटर आप पी रहे हैं, उसके दो या तीन घूंट के बराबर. उनकी इस ग़लती की वजह से उनका रेप हो गया सर. उनको मारकर पेड़ पर टांग दिया गया ताकि पूरी ज़ात को उनकी औक़ात याद रहे.”

हालांकि अजय ब्रह्मात्मज ये सवाल भी उठाते हैं क्यों आज भी हिंदी फ़िल्मों में दलितों का संरक्षक कोई ऊंचि जाति का ही होता है जैसा कि आर्टिकल 15 में भी था.

दलित बोध का अभाव

अजय ब्रह्मात्मज मानते हैं कि तमिल और मलायलम में जाति को लेकर बेहतरीन फ़िल्में बन रही हैं क्योंकि इनमें दलित बोध है जो हिंदी फ़िल्मों में नहीं दिखता.

2021 में आई तमिल फ़िल्म करनन की शुरुआत होती है उस सीन से जहाँ एक बच्चा बस पर ग़ुस्से में पत्थर फ़ेकता हैं क्योंकि उनकी जाति की वजह से गाँव में कोई बस नहीं रुकती, गर्भवती महिलाओं के लिए भी नहीं.

ये मराठी फ़िल्म फ़ैंड्री के उस बच्चे के आक्रोश की तरह ही है जिसे अंतत एहसास होता है कि वो जाति के परे कभी अपनी पहचान नहीं बना पाएगा और आख़िरी सीन में ग़ुस्से में भीड़ पर पत्थर फ़ेंकता है.

और ये सीन उस छोटे बच्चे की ओर भी वापस ले जाता है जो 1974 में आई अंकुर में ज़मींदार के घर पर पत्थर फेंकता है.

ये आक्रोश इन दलित किरदारों की ताक़त है या फिर उन्हें जाति के उसी दायरे में बांधता है जिससे निकलने की वो कोशिश कर रहे हैं ?

क्या जाति से परे इन किरदारों को न्यूट्रल दिखाना एक सकारात्मक क़दम है या जातिगत शोषण पर लगातार सवाल उठाते रहना फ़िल्मकारों की ज़रूरी ज़िम्मेदारी?

हरीश एस वानखेड़े मानते हैं, “नई फ़िल्मों में भले ही सशक्त दलित किरदार दिखाए जा रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है वो किरदार दलितों के मुद्दों से तटस्थ हो गए हैं. हैं. प्रकाश झा की परीक्षा नाम की फ़िल्म में दलितपिता की मुश्किलें हैं तो उसकी आंकक्षाएँ भी दर्शाई गई हैं. ये बहुत बड़ा बदलाव नहीं है पर सिनेमा धीरे धीरे डेमोक्रेटिक हो रहा है.”

लेकिन अजय ब्राह्त्मज काउंटर सवाल पूछते हैं,हिंदी फ़िल्मों में आज भी दलित किरदारों को नायकत्व क्यों नहीं मिला है. विकी कौशल ने जब मसान की थी वो नए थे, पर आज क्या कोई मेनस्ट्रीम हीरो दलित किरदार करेगा?

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