DMT : नई दिल्ली : (27 मई 2023) : –
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत पृथ्वी का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है.
अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या वो एक वैश्विक सुपर पावर के तौर पर अपने ताक़तवर पड़ोसी की बराबरी या उसे पीछे भी छोड़ सकता है?
अर्थव्यवस्था के आकार, भूराजनैतिक दबदबे और सैन्य ताक़त के मामले में बीजिंग अभी बहुत आगे है. लेकिन एक्सपर्ट का कहना है कि यह तस्वीर बदल रही है.
अर्थशास्त्र में 2001 के नोबल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस का मानना है कि भारत का वक़्त आ चुका है.
प्रोफ़ेसर माइकल स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में डीन हैं, उन्होंने बीबीसी से कहा, “भारत जल्द ही चीन की बराबरी कर लेगा. चीनी अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ेगी लेकिन भारत की नहीं.”
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं
चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी और भारत के मुकाबले पांच गुना बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारतीय अर्थव्यवस्था का दुनिया में पांचवां स्थान है.
भारत के मध्यवर्ग का आकार अपेक्षाकृत छोटा है और चीन जैसा विकास करने के लिए भारत को शिक्षा के क्षेत्र में, जीवन स्तर में, लैंगिक समानता और आर्थिक सुधारों में भारी निवेश करने की ज़रूरत होगी.
सबसे बड़ी बात है कि ग्लोबल सुपर पावर होने के लिए आबादी और अर्थव्यवस्था ही पर्याप्त नहीं है. यह भूराजनैतिक और मिलिटरी पॉवर पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है और ये इन क्षेत्रों में भारत बहुत पीछे है.
हालांकि सॉफ़्ट पावर भी मुख्य भूमिका निभाता है. भारत का बॉलीवुड फ़िल्म उद्योग दुनिया भर में भारत की छवि बनाने में बहुत प्रभावी है और नेटफ़्लिक्स पर इसका प्रदर्शन शानदार है.
लेकिन तेज़ी से बढ़ते चीन के फ़िल्म उद्योग ‘चाइनावुड’ ने हाल ही में हॉलीवुड को पीछे छोड़ दिया. पहली बार 2020 में उसने बॉक्स ऑफ़िस पर दुनिया का रिकॉर्ड तोड़ दिया और 2021 में भी उसने दोबारा ऐसा किया.
आज भारत में हर दिन 86,000 बच्चे पैदा होते हैं जबकि चीन में 49,400 बच्चे.
कम जन्मदर की वजह से चीन की जनसंख्या सिकुड़ रही है और इस सदी के अंत तक इसकी जनसंख्या का एक अरब के नीचे आना तय है.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2064 तक भारत की आबादी का बढ़ना जारी रहेगा और इसकी जनसंख्या मौजूदा 1.4 अरब से बढ़ कर 1.7 अरब हो जाएगी.
यह भारत को डेमोग्राफ़िक डिविडेंड (जनसांख्यिकी लाभांश) देगा. काम करने लायक आबादी के बढ़ने की वजह से तेज़ आर्थिक विकास के लिए डेमोग्राफ़िक डिविडेंड शब्दावली का इस्तेमाल होता है.
न्यूयॉर्क के न्यू स्कूल में भारत चीन इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर प्रोफ़ेसर मार्क फ़्रेज़ियर के अनुसार, “1990 के दशक में जो सुधार हुए थे उसका भारत को अब फायदा मिल रहा है. लेकिन कार्यशील आबादी की शिक्षा, स्वास्थ्य, हुनर और अर्थव्यवस्था में योगदान की क्षमता बहुत मायने रखता है.”
हाल के महीनों में एप्पल और फॉक्सकॉन जैसी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को आकर्षित करने के बावजूद भारत की आंतरिक नौकरशाही और बार बार नीति बदलने के कारण उपजी अस्थिरता से कुछ अंतरराष्ट्रीय निवेश बिदकते भी हैं.
प्रो. फ़्रेज़ियर कहते हैं, “उन्नीसवीं शताब्दी में माना जाता था कि जितनी बड़ी आबादी होगी, आप भी उतने ही ताक़तवर होंगे.”
वर्ल्ड बैंक के अनुसार, आज काम करने की उम्र (14-64 साल) वाले आधे भारतीय ही वास्तव में नौकरी कर रहे हैं या नौकरी की तलाश में हैं.
और जहां तक महिलाओं की बात है तो यह आंकड़ा 25% तक गिर जाता है, जबकि चीन में यह 60% और यूरोपीय संघ में 52% है.
1980 और 1990 के दशकों में लगातार सुधारों के बाद चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ी.
लेकिन कोविड, बूढ़ी होती आबादी और पश्चिम के साथ लगातार बढ़ते तनाव के कारण देश की विकास दर पर असर पड़ा है.
भारत की जीडीपी की रफ़्तार पहले ही चीन के मुकाबले तेज़ है और आईएमएफ़ का अनुमान है कि इसके ऐसे ही बने रहने की पर्याप्त संभावना है.
लेकिन कम वृद्धि दर का मतलब है कि चीन की प्रासंगिकता भी कम हो जाएगी?
प्रोफ़ेसर स्पेंस कहते हैं, “अगर चीन 2030 तक 4% या 5% की दर से विकास करता है तो यह बहुत शानदार उपलब्धि होगी. लोग ये सोच सकते हैं कि जो देश 8-9% की दर से बढ़ रहा था ये धीमापन एक बुरी बात है, लेकिन सोचने का यह तरीक़ा सही नहीं है.”
उनके मुताबिक़, “चीन अब कमोबेश अमेरिका की तरह है. अमेरिका कभी भी 8, 9, 10% की दर से नहीं बढ़ा. वो अपनी उत्पादकता दर पर भरोसा कर रहे हैं और मुझे लगता है कि वे शिक्षा, विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भारी निवेश कर इसे हासिल भी कर रहे हैं.”
चीन की सैन्य ताक़त
चीन और भारत दोनों परमाणु हथियार संपन्न शक्ति हैं और यह उन्हें दुनिया के नक्शे पर एक रणनीतिक स्थिति प्रदान करता है.
फ़ेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन साइंटिस्ट का अनुमान है कि बीजिंग के पास दिल्ली के मुकाबले ढाई गुना अधिक परमाणु हथियार हैं.
चीन की सेना का आकार 6,00,000 है और रक्षा उद्योग में भारी निवेश कर रहा है.
प्रो. फ़्रेज़ियर का कहना है, “भारत रक्षा मामले में रूस, आयातित टेक्नोलॉजी और विशेषज्ञता पर पूरी तरह निर्भर है जबकि सैन्य ढांचे में रिसर्च और स्वदेशी विकास कार्यक्रमों पर चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है.”
रक्षा क्षेत्र में हालांकि चीन की बढ़त साफ़ है, लेकिन यूरोप और अमेरिका के साथ नज़दीकी रिश्ते भारत को दमदार बनाते हैं, क्योंकि दुनिया की अधिकांश सैन्य ताक़तें उनके साथ हैं.
प्रो. फ़्रेज़ियर कहते हैं, “हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझीदार हो सकता है, जहां अमेरिकी सरकार चीन को घेरते हुए एक किस्म का सिक्युरिटी ज़ोन विकसित कर रही है जिसमें केवल पूर्वी एशिया ही नहीं है बल्कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर भी शामिल हैं.”
भूराजनैतिक विकल्प
भारत इस साल जी-20 समिट की मेज़बानी कर रहा है और वो इस दौरान खुद को प्रमोट करने के एक मौके के तौर पर देख रहा है क्योंकि दुनिया की 85% संपत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले देश इसमें शामिल हैं.
अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल के समय से ही एक तरफ़ दुनिया के सबसे ताक़तवर देशों के साथ चीन के रिश्ते बिगड़े हैं लेकिन दूसरी तरफ रूस, दक्षिण अफ़्रीका से लेकर सऊदी अरब और यूरोपीय संघ समेत 120 देशों के साथ चीन मुख्य आर्थिक साझीदार है.
इसके साथ ही कई ट्रिलियन डॉलर की लागत से बन रहे बेल्ट एंड रोड परियोजना, विदेशों में चीन के राजनीतिक असर को बढ़ाता है.
पश्चिम भारत को अपने मुख्य भू राजनैतिक पार्टनर के रूप में देखता है तो दूसरी तरफ़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बिजिंग के पास पांच सीटें हैं, इसका मतलब है कि उसके पास फैसले की ताक़त यानी वीटो है.
ये हालात हैं जो भारत और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएं दशकों से बदलने की कोशिश में हैं, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है.
हालांकि एक्सपर्ट का कहना है कि सुरक्षा परिषद में वोटिंग की ताक़त का आर्थिक आकार या असर से कोई लेना देना नहीं होता. इसीलिए दुनिया को इन संस्थाओं में सुधार लाना होगा या ये अपनी अहमियत खो देंगी क्योंकि वैकल्पिक चीज़ें उभरेंगी.
इस समय जो मुख्य वैकल्पिक निकाय ब्रिक्स है. इस आर्थिक गुट में ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका हैं और ये पश्चिम के आर्थिक और भूराजनैतिक काट के लिए बनाया गया है.
सॉफ़्ट पावर
सदी भर पहले अमेरिकी मूल्य मान्यताओं और प्रभाव को पूरी दुनिया में पहुंचाने के लिए हॉलीवुड ने एक सशक्त माध्यम की भूमिका निभाई थी.
चीन और भारत भी इसी रणनीति को सफलतापूर्वक आज़मा रहे हैं.
चीन में 2007 के बाद से सिनेमा हाल की संख्या में 20 गुना की वृद्धि हुई है और अमेरिका में 41,000 और भारत के 9,300 के मुकाबले में इनकी संख्या 80,000 तक पहुंच गई है.
कैलीफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में मीडिया एंड कल्चरल स्टडीज़ की चायनीज़ प्रोफ़ेसर वेंडू सू के अनुसार, “महामारी के पहले चाइनावुड ने कई हॉलीवुड फ़िल्म स्टूडियोज़ का अधिग्रहण करके और फ़िल्मों में सह निर्माता बनकर दुनिया भर में अपने असर को बढ़ाना जारी रखा था.”
लेकिन 2020 और 2021 में लगातार अमेरिकी फ़िल्म मार्केट को पीछे छोड़ने के बाद, लॉकडाउन के कारण चीन का बॉक्स ऑफ़िस 2022 में 36% गिर गया.
बॉलीवुड ने भारतीय सिनेमा को पूरी दुनिया में पहचान दी है.
प्रो. सू के मुताबिक, “पूरी दुनिया में बॉलीवुड का असर कहीं व्यापक और मज़बूत है.”
उनका कहना है, “चीन में भी बॉलीवुड की फ़िल्मों का बहुत असर है. दंगल फ़िल्म ने चीन में किसी भी हॉलीवुड फ़िल्म के लगभग ही कमाई की और 16 दिनों तक चीन के बॉक्स ऑफ़िस पर नंबर वन बनी रही. सिनेमाघरों में यह 60 दिनों तक चली.”