अफ़ग़ानिस्तान युद्ध को लेकर हॉलीवुड का एक ख़ास नज़रिया क्यों है?

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DMT : अफ़ग़ानिस्तान  : (18 जून 2023) : –

इसी साल रिलीज़ हुई गाय रिची की हॉलीवुड वॉर फ़िल्म ‘द कोवेनैंट’ बंदूकों की तड़तड़ाहट और विस्फोटों से भरी एक्शन मूवी है, जिसे देखते हुए आप खुद उस ख़तरे को महसूस कर सकते हैं.

इसमें अफ़ग़ानिस्तान में 2018 में तैनात एक अमेरिकी आर्मी सर्जेंट जॉन किनले का किरदार निभाया है जेक गायलेनहाल ने, जिनकी ज़िंदगी एक अफ़ग़ान गाइड अहमद (डार सलीम) बचाता है.

किनले जब अपने घर लौटते हैं तो उन्हें पता चलता है कि अमेरिकी सैनिकों की मदद करने की वजह से तालिबान अहमद और उनके परिवार को निशाना बना रहे हैं. वो अहमद को बचाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान लौट जाते हैं.

यह फ़िल्म व्यावसायिक मकसद से बनी है लेकिन ये फ़िल्म अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल लंबे चले अमेरिकी युद्ध को पर्दे पर लाने की बाकी कोशिशों जैसी ही है. अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को 2021 में विदा कहा था.

जब अमेरिका ने वियतनाम से वापसी की थी उसके तुरंत बाद ही कुछ बढ़िया फ़िल्में आई थीं जैसे ‘एपोकैलिप्स नाउ’ (1879) और ‘डीयर हंटर’ (1978).

‘द कोवेनैंट’ और अन्य आने वाली फ़िल्मों से लगता है कि भले ही फ़िल्म निर्माता अफ़ग़ानिस्तान पर फ़िल्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इनके पर्दे पर आने में समय है.

फ़िल्म जगत आज पहले से कहीं अधिक सतर्क है और अमेरिका इस मुद्दे पर राजनीतिक रूप से बहुत बंटा हुआ है.

हाल ही में प्यू रिसर्च सेंटर की एक रायशुमारी से पता चला है कि अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका में राजनीतिक पार्टियों समेत सबकी राय बंटी हुई है.

हालांकि अमेरिकी इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान का युद्ध सबसे लंबा चला लेकिन वहां के लोगों में ये शायद ही सबसे प्राथमिक मुद्दा है.

अमेरिकी सेना ने 9/11 के बाद चरमपंथी गढ़ों को नष्ट करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान में 2001 में प्रवेश किया लेकिन अन्य वैश्विक टकरावों के सामने इसका मुद्दा पीछे भी चला गया, पहले इराक़ युद्ध और अब यूक्रेन युद्ध की वजह से.

हालांकि ‘द कोवेनैंट’ मूवी बहुत समय से आई है.

अभी दो हफ़्ते पहले ही बाइडन प्रशासन ने अमेरिकी सैनिकों की वापसी और देश छोड़ने की कोशिश में काबुल एयरपोर्ट पर हज़ारों अफ़ग़ान नागरिकों के बीच भगदड़ पर एक रिपोर्ट जारी की है.

अमेरिकी और ब्रिटिश फ़ौजों के देश छोड़ने के कुछ हफ़्तों में ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया. लोगों के अधिकारों पर पाबंदियां लगा दीं ख़ासकर महिलाओं के लिए और वैश्विक स्तर पर अफ़ग़ान शरणार्थियों का संकट पैदा कर दिया.

गाय रिची की ‘द कोवेनैंट’ इसी संदर्भ में बनी है, हालांकि इस संकट या ये कहें अमेरिकी सैनिकों और उनकी मदद करने वाले स्थानीय गाइड पर बनने वाली ये कोई पहली हॉलीवुड फ़िल्म नहीं है.

एक और फ़िल्म चर्चा में है, ‘कंधार’ (अमेरिका में 26 मई को रिलीज हुई). गेरार्ड बटलर की ये एक्शन मूवी एक ऐसे सीआईए कर्मी पर आधारित है जो अफ़ग़ानिस्तान के सुदूर इलाक़े में अपने दुभाषिए के साथ फंस गया है.

इसके ट्रेलर में बटलर ये कहते दिखता है कि ‘हमें बचाने कोई नहीं आने वाला.’ ये डायलॉग संकेत देता है कि दोनों दुश्मनों से लड़ते हुए एक दूसरे की जान बचाते हैं.

2021-22 में सीबीएस नेटवर्क ने एक कॉमेडी सिरीज़ ‘द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ एआई’ बनाई थी जिसमें मैरीन की मदद करने वाला एक अफ़ग़ान गाइड अमेरिका उनके घर आता है.

2016 में बनी थोड़ी कॉमेडी में पगी फ़िल्म ‘व्हिस्की टैंगो फ़ौक्ट्रॉट’ में टीना फ़े ने काम किया है और इसमें अफ़ग़ान गाइड के रूप में अमेरिकन क्रिस्टोफ़र ओबॉट को कास्ट किया गया है.

हालांकि ‘द कोवेनैंट’ इस मामले में उससे अधिक संवेदनशीलता से बनाई गई मूवी है.

फ़िल्म मेकर के रूप में रिची ने शुरुआत ब्रिटिश गैंगस्टर से करके ‘डिस्नेज अलादीन’ बनाई और अब ‘द कोवेनैंट’ लेकर आए हैं.

फ़िल्म को लेकर आए बयान में कहा गया है कि रिची लंबे समय से एक वॉर मूवी बनाना चाहते थे, “अफ़ग़ानिस्तान के बारे में मैंने बहुत सी कहानियां सुन रखी हैं और हर कहानी जतनी डरावनी लगी उतनी ही प्रेरित करने वाली भी लगी.”

हालांकि ये बात किसी भी वॉर मूवी पर लागू होती है.

कहानी के पीछे की सच्चाई

इस फ़िल्म में कुछ तथ्यों को भी आधार बनाया गया है. फ़िल्म के अंत में लिखा आता है कि 300 अफ़ग़ान नागरिकों की मौत हो गई और अमेरिका की मदद करने के लिए हज़ारों अफ़ग़ान तालिबान से छुप कर जीने को मजबूर हैं.

काबुल में 2017-18 के बीच अमेरिकी मिशन में डिप्टी चीफ़ रहीं एनी फ़ोर्झीमर ने बीबीसी कल्चर को बताया कि ये काफी हद तक सही है, “ये आंकड़ा तो उसी समय पुराना पड़ गया था लेकिन संयुक्त राष्ट्र और स्वतंत्र मानवाधिकार प्रेक्षकों ने ऐसे कई मामलों की विधिवत रिपोर्टिंग की है.”

सबसे दिलचस्प बात है कि फ़िल्म में किनले और अहमद के बीच जो भावनात्मक संबंध हैं उसका अनुभव खुद एनी को भी हुआ है.

वो कहती हैं, “बीस सालों तक जिन सैनिकों और राजनयिकों ने अफ़ग़ान गाइड, पुलिस, सेना और अधिकारियों के साथ मिलकर काम किया, उनके बीच गहरा भावनात्मक रिश्ता विकसित हुआ. ‘द कोवेनैंट’ जैसी फ़िल्में बेबसी के वास्तविक अहसास को कुछ हद तक छू पाती हैं.”

‘द कोवेनैंट’ में थोड़ा अलोचनात्मक पहलू भी दिखता है जब उसमें दिखाया जाता है कि अहमद को अमेरिकी वीज़ा मिलने में लालफीताशाही इतने अड़ंगे डालती है कि देश छोड़ने से पहले ही तालिबान की ओर से उन्हें ढूंढ लेने की आशंका बढ़ जाती है.

इससे आक्रोशित किनले एक आर्मी अफ़सर पर चिल्लाता है, “सौदा हुआ था कि हम उसके परिवार को शरण देंगे. इसके बाद हमने उसके गले में फांसी का फंदा लगाकर उसके पैरों से स्टूल खिसका दिया.”

लेकिन राजनीति और फ़िल्मी डायलॉग को एक किनारे करें तो इसमें उस हताशा को सही दिखाया गया है कि युद्ध में शामिल रहे सैनिक और एनजीओ लगातार ध्यान दिला रहे हैं कि अफ़गान गाइड को अमेरिका के लिए स्पेशल इमिग्रेशन वीज़ा का जो वादा किया गया था, उसकी क़तार बहुत लंबी है.

कम बजट और सफलता की चिंता लिए बिना डॉक्युमेंट्री में अफ़ग़ानिस्तान को प्रति अमेरिकी नज़रिये की सीधी आलोचना कहीं अधिक संभव होती है.

मैथ्यू हीनेमैन की डॉक्युमेंट्री ‘रेट्रोग्रेड’ को बेस्ट डाक्युमेंट्री ऑस्कर के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया है.

अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने से पहले मैथ्यू ने अमेरिकी फ़ौजों के साथ अपना कैमरा क्रू लगा दिया था जिसमें अमेरिकी सैनिकों और उनके सहयोगी अफ़ग़ान गाइडों के बीच का संबंध खुलकर दिखता है. इसमें अचानक वापसी के फैसले से नाख़ुश एक अमेरिकी अफ़सर अफ़ग़ान लोगों से कहता है, “बहुत शुक्रिया दोस्तों.”

माना जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध ने वॉर फ़िल्म बनाने की प्रेरणा दी, 1940 के दशक से लेकर 1998 में सेविंग प्राइवेट रयान और उसके बाद तक. 1975 में जब वियतनाम युद्ध ख़त्म हुआ तबतक ये विचार बनने शुरू हो गए थे कि अमेरिका का वहां जाना ग़लती थी. इसके बाद ही प्लाटून (1986) जैसी फ़िल्में बनीं.

राजनीति को अलग रखने का मतलब

इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर बनी अधिकांश फ़िल्में जानबूझ कर अराजनीतिक बनाई गईं, जिनमें सैनिकों के हीरोइज़्म का महिमामंडन किया गया है. असल में युद्ध के गहरे कारणों को नज़रअंदाज़ करने का ये एक तरीक़ा भी है.

गायेनहाल की एक और फ़िल्म है ‘जारहेड’ (2005) जो 1990 के दशक के शुरुआती सालों में खाड़ी युद्ध पर आधारित है. इसमें एक मैरीन अपने साथी से कहता है, “राजनीति को भूल जाओ, ठीक है? अब हम यहां पर हैं.” इसके बाद वो जोड़ता है कि “बाकी चीजों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता.”

ये डायलॉग युद्ध के कारणों की तह में जाने की बजाय उन सवालों से बच निकलने का रास्ता दिखाता है.

अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ी लड़ाई पर आधारित है ‘आउटपोस्ट’ (2020) में भी यही चीज़ दिखाई देती है जब एक सैनिक कहता है कि “आज़ादी फ़्री में नहीं मिलती.” पूरी फ़िल्म में यही एक राजनीतिक बातचीत कहा जा सकता है, वो भी बहुत अस्पष्ट रूप से. इसमें सैनिकों की बहादुर और हिंसा के डरावने चेहरे को ही फोकस किया गया है.

फ़िल्म हिस्टोरियन और क्रिटीक डेविड थाम्पसन की किताब ‘द फ़ैटल अलायंसः सेंचुरी ऑफ़ वॉर आन फ़िल्म्स’ नवंबर में प्रकाशित होने वाली है.

डेविड कहते हैं कि वॉर मूवीज़ के आकर्षण का कारण हिंसा है.

बीबीसी कल्चर को उन्होंने बताया, “एंटी वॉर फ़िल्म जैसी कोई चीज नहीं होती, क्योंकि फ़िल्म मेकर की जो भी मंशा हो, इस माध्यम की मजबूरी है कि वो युद्ध, गोलीबारी और हत्याओं को रोचक और उत्तेजक तरीके से दिखाता है.”

बेस्ट हॉलीवुड वॉर मूवी में आम तौर पर पश्चिमी नज़रिये को ही परोसा जाता है, जबकि अफ़ग़ानिस्तान में बनी फ़िल्में नज़रअंदाज़ हो जाती हैं. सहरा करीमी की 2019 में बनी फ़िल्म ‘हवा, मरयम, आएशा’ का वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में प्रीमियर हुआ था.

यह फ़िल्म अलग अलग तबके की तीन गर्भवती अफ़ग़ान महिलाओं पर बनी है. करीमी ने तालिबान आने के बाद 2021 में देश छोड़ दिया था, अभी वो न्यूयॉर्क में रह रही हैं.

वो अभी खुद के देश से भागने पर फ़िल्म ‘फ़ाइट फ़्रॉम काबुल’ शूट करने जा रही हैं.

उन्होंने बीबीसी कल्चर से कहा, “ये कहानी काबुल में सत्ता ख़त्म होने के दो महीने पहले की है. मैं दुनिया को दिखाना चाहती हूं कि हमारी ज़िंदगियां थीं, मुद्दे थे, सपने थे और सुरक्षा के हालात बहुत अच्छे नहीं थे फिर भी हम हर रोज एक नई उम्मीद से शरू करते थे.”

वो कहती हैं कि नामी गिरामी हॉलीवुड के मशहूर निर्देशक अफ़ग़ानिस्तान की कहानी से पहाड़ के पीछे से दिखाते हैं, जो अनोखा, दिलचस्प तो लगता है लेकिन असलियत से बहुत दूर है. वो कहती हैं कि इस ‘पीड़ित और बचाने’ वाले फार्मूले से इतर बहुत कुछ है जिसे कहा जाना बाकी है.

स्थानीय भाषा की फ़िल्मों के वितरण की कमी उन्हें अदृश्य बना देती हैं. करीमी की फ़िल्म और डाक्युमेंट्री अफ़ग़ान वुमेन बिहाइंड व्हील (2009) उपलब्ध नहीं है. ना ही फ़िल्म समीक्षकों द्वारा सराही गई एक और अफ़गानी महिला डायरेक्टर रोया सादात की फ़िल्म ‘अ लेटर टू प्रेसीडेंट’ (2003).

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