इसराइल को लेकर क्या इस्लामिक देश एकजुट हो पाएंगे?

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DMT : इसराइल  : (12 अक्टूबर 2023) : –

इसराइल और फलस्तीनियों का विवाद कई बार जंग का रूप ले चुका है. इसराइल के जन्म से ही फ़लस्तीनियों के अपने मुल्क का सवाल बना हुआ है लेकिन वक़्त के साथ इसका समाधान मिलने के बजाय स्थितियां और जटिल होती जा रही हैं.

फ़लस्तीनियों को उम्मीद रहती है कि अरब के इस्लामिक देश कम से कम इसराइल के ख़िलाफ़ उनके साथ खड़े होंगे. लेकिन सबके अपने-अपने हित हैं और उसी के अनुसार सबकी प्रतिक्रिया होती है.

जब यूएई, मोरक्को, बहरीन और सूडान ने अब्राहम अकॉर्ड्स के ज़रिए इसराइल को मान्यता दी और औपचारिक रिश्ते कायम किए तो तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने विरोध किया था जबकि तुर्की के इसराइल के साथ राजनयिक संबंध पहले से ही थे.

तुर्की और इसराइल में 1949 से ही राजनयिक संबंध हैं. तुर्की इसराइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम बहुल देश था.

इस दौरे में उन्होंने तत्कालीन इसराइली पीएम एरिएल शरोन से मुलाक़ात की थी और कहा था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से न केवल इसराइल को ख़तरा है बल्कि पूरी दुनिया को है.

2010 में मावी मरमार वाक़ये के बाद से दोनों देशों के बीच कड़वाहट थी. इस घटना में इसराइली कमांडो ने तुर्की के पोत में घुसकर उसके 10 लोगों को मार दिया था.

लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के में कारोबारी संबंध हैं. 2019 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 6 अरब डॉलर से ज़्यादा का था.

इसराइल मामले में तुर्की की प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि उसका राष्ट्रीय हित किस हद तक प्रभावित नहीं होता है.

हमास के हमले से ठीक पहले अर्दोआन इसराइल जाने वाले थे.

सऊदी अरब भी खुलकर फ़लस्तीनियों के अधिकारों की बात करता है लेकिन इस हद तक नहीं जाता है कि पश्चिम को एकदम से नाराज़ कर दे.

यूएई ने तो इसराइल और गज़ा में मौजूदा हिंसा के लिए हमास को ज़िम्मेदार ठहराया है. ईरान खुलकर हमास का समर्थन कर रहा है और इसराइल पर सीधे उंगली उठा रहा है. ईरान के हितों का अपना समीकरण है और उसी के हिसाब से वह प्रतिक्रिया दे रहा है.

सऊदी अरब और हमास के रिश्ते भी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. 1980 के दशक में हमास के बनने के बाद से सऊदी अरब के साथ उसके सालों तक अच्छे संबंध रहे.

2019 में सऊदी अरब में हमास के कई समर्थकों को गिरफ़्तार किया गया था. इसे लेकर हमास ने बयान जारी कर सऊदी अरब की निंदा की थी. हमास ने अपने समर्थकों को सऊदी में प्रताड़ित करने का भी आरोप लगाया था. 2000 के दशक में हमास की क़रीबी ईरान से बढ़ी.

हमास एक सुन्नी इस्लामिक संगठन है जबकि ईरान शिया मुस्लिम देश है लेकिन दोनों की क़रीबी इस्लामिक राजनीति की वजह से है. अहमद कहते हैं कि ईरान के क़रीब होने के बावजूद इससे हमास को कोई फ़ायदा नहीं होता है.

ईरान से क़रीबी के कारण सऊदी अरब से हमास की दूरी बढ़ना लाज़िम था क्योंकि सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी रही है. ऐसे में हमास किसी एक का ही क़रीबी रह सकता है.

इसराइल का जितना खुला विरोध ईरान करता है, उतना मध्य-पूर्व में कोई नहीं करता है. ऐसे में हमास और ईरान की क़रीबी स्वाभाविक हो जाती है.

2007 में फ़लस्तीनी प्रशासन के चुनाव में हमास की जीत हुई और इस जीत के बाद उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई थी.

लेकिन हमास और सऊदी अरब के रिश्ते भी स्थिर नहीं रहे. जब 2011 में अरब स्प्रिंग या अरब क्रांति शुरू हुई तो सीरिया में भी बशर अल-असद के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे. ईरान बशर अल-असद के साथ खड़ा था और हमास के लिए यह असहज करने वाला था.

इस स्थिति में ईरान और हमास के रिश्ते में दरार आई. लेकिन अरब क्रांति को लेकर सऊदी अरब का रुख़ मिस्र को लेकर जो रहा, वो भी हमास को रास नहीं आया.

सऊदी अरब मिस्र में चुनी हुई सरकार का विरोध कर रहा था. ऐसे में फिर से हमास की तेहरान से करीबी बढ़ी.

2019 के जुलाई में हमास का प्रतिनिधिमंडल ईरान पहुँचा और उसकी मुलाक़ात ईरान के सर्वोच्च नेता अयतोल्लाह अली ख़ामेनेई से हुई थी. सऊदी अरब में हमास के नेताओं को मुस्लिम ब्रदरहुड से भी जोड़ा जाता है.

इसराइल और हमास के बीच अभी हिंसक संघर्ष चल रहा है और इसमें अब तक 67 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 14 बच्चे हैं. इस बीच हमास ने मध्य पूर्व के प्रतिद्वंद्वी देश ईरान और सऊदी से एकता बनाने की अपील की है.

हमास के एक प्रवक्ता ने न्यूज़वीक से कहा था, ”इसराइल ने अल अक़्सा मस्जिद का अपमान किया है. इसलिए हम रॉकेट दाग रहे हैं. वे पूर्वी यरुशलम से फ़लस्तीनी परिवारों को निकालना चाह रहे हैं. अल अक़्सा मुस्लिम जगत के लिए तीसरी सबसे पवित्र जगह है और फ़लस्तीन के लिए सबसे पवित्र जगह. हमें उम्मीद है कि सऊदी अरब और ईरान आपसी मतभेद भुला देंगे. अगर ऐसा होता है तो फ़लस्तीनियों के लिए बहुत अच्छा होगा.”

संयुक्त अरब अमीरात ने रविवार को बयान जारी कर हमास के हमले को “गंभीर और तनाव बढ़ाने वाला” बताया था. यूएई के विदेश मंत्रालय के बयान में कहा था कि वो “इसराइली नागरिकों को उनके घरों से अगवा कर के बंदी बनाए जाने की ख़बरों से स्तब्ध है.”

बहरीन ने भी हमास के हमलों की आलोचना की है. बहरीन ने कहा था, “हमले ने तनाव को ख़तरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है, जिससे आम लोगों की जान जोखिम में पड़ गई है.”

इन दोनों देशों के ये बयान उनके पहले के रुख़ से अलग है, जब पूरा अरब वर्ल्ड इसराइल के ख़िलाफ़ एक सुर में बोलता था.

सऊदी अरब ने संतुलन बरतने की कोशिश की है. हालांकि उसने ‘इसराइली कब्ज़े’ का ज़िक्र किया है और हमास के हमले की निंदा न करते हुए ख़ुद को फ़लस्तीन के साथ खड़ा दिखाया है. सऊदी अरब की ओर से जारी बयान में इस संघर्ष को तुरंत रोकने और दोनों ओर नागरिकों की सुरक्षा का आह्वान किया गया है.

बयान में कहा गया है, “सऊदी अरब फ़लस्तीनी लोगों के वैध अधिकार हासिल करने, सम्मानजनक जीवन जीने की कोशिश और उनकी उम्मीदों को पूरा करने और न्यायपूर्ण और स्थायी शांति की कोशिश में उसके साथ खड़ा रहेगा.”

कुवैत, ओमान और क़तर ने इसराइल पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए एक बार फिर से फ़लस्तीन को देश के रूप में मान्यता देने की मांग दोहराई है, जिसकी राजधानी पूर्वी यरुशलम हो. क़तर ने इसराइल को इस तनाव का अकेला ज़िम्मेदार बताया है.

मलेशिया, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान ने भी फ़लस्तीनियों के प्रति समर्थन दिखाया है.

मोरक्को भी अब्राहम समझौते के तहत इसराइल के साथ संबंधों को सामान्य करने वाले देशों में से एक है. मोरक्को ने हमलों को लेकर काफ़ी संतुलित बयान जारी करते हुए कहा, “मोरक्को ग़ज़ा में हालात बदतर होने और सैन्य कार्रवाई तेज़ होने पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त करता है. नागरिकों के ख़िलाफ़ हमलों की निंदा करता है, चाहे वे कहीं भी हों.”

तुर्की ने इसराइल की आलोचना तो की है लेकिन उसके रुख़ में वो आक्रामकता नहीं दिखी जो पहले थी. तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन अतीत में इसराइल की तुलना नाज़ी जर्मनी से कर चुके हैं. अर्दोआन ने 2019 में संयुक्त राष्ट्र के भाषण में भी इसराइल पर जमकर हमले किए.

इसराइल और अमेरिका की जिगरी यारी दशकों पुरानी है. अमेरिका इसराइल को देश के तौर पर मान्यता देने वाला पहला मुल्क है.

हमास के साथ जंग के एलान के साथ ही इसराइल को अमेरिका ने अपना युद्धपोत और लड़ाकू विमान भेजे हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इसराइल को गज़ा युद्ध के बीच सैन्य और राजनीतिक मदद देने का वादा किया है.

इसराइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां की बहुसंख्यक आबादी यहूदी है. ये एक छोटा सा देश है लेकिन इसकी सैन्य ताक़त का लोहा दुनिया मानती है.

इसराइल भूमध्यसागर के पास मध्य पूर्वी देश है. इसके आसपास मिस्र, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया, इराक़, तुर्की, ईरान, कुवैत, मोरक्को, सऊदी अरब, फ़लस्तीन, सूडान और ट्यूनीशिया जैसे कई मुस्लिम देश हैं.

इनमें से कई ऐसे भी देश हैं जो इस्लामिक देशों के संगठन यानी ओआईसी के सदस्य हैं और उनकी अमेरिका से भी दोस्ती है.

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पश्चिम एशिया मामलों के अध्यापक प्रोफ़ेसर रहे एके पाशा कहते हैं, “ओआईसी में जो 56 देश हैं, उसमें आधे से ज्यादा अमेरिका के बहुत क़रीबी दोस्त हैं. फिर वो तुर्की हो, पाकिस्तान हो, इंडोनेशिया हो, बांग्लादेश, जॉर्डन हो या मोरक्को. ये लंबी लिस्ट है. इसराइल के मुद्दे पर ओआईसी दो गुटों में बँट गया है. दूसरा गुट इराक़, ईरान, अल्जीरिया है, लीबिया वगैरह देश हैं. ये देश हार्डलाइन अप्रोच चाहते हैं. ये हमास को समर्थन देना चाहते हैं.”

पश्चिमी एशिया मामलों की जानकार और जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर सुजाता एश्वर्य कहती हैं, “इसराइल के समर्थन में पश्चिमी देश एक सुर में आगे आए हैं. “

“तुर्की सालों से ख़ुद को अलग-थलग महसूस कर रहा है. इसके उलट अब्राहम एकॉर्ड के ज़रिए इसराइल ने कई देशों के साथ अपने रिश्ते सुधारे हैं. तुर्की ये जानता है कि अगर उसने पूरी तरह से फ़लस्तीन के प्रति झुकाव दिखाया और इसराइल का खुला विरोध किया तो वह अकेला रह जाएगा. अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए भी तुर्की ने संतुलित रुख़ अपनाया है. तुर्की को ये साफ़ पता है कि वो इसराइल के ख़िलाफ़ खड़े होकर पश्चिम के साथ नहीं रह सकता.”

सुजाता एश्वर्य तुर्की के रवैये के पीछे इसराइल के साथ तुर्की के गैस पाइपलाइन को लेकर होने वाले समझौते को भी एक वजह मानती हैं.

रूस पर निर्भरता कम करने के मक़सद से तुर्की के रास्ते इसराइली गैस को यूरोप तक पहुंचाने के लिए गैस पाइपलाइन की शुरुआत करने की चर्चा जारी है. हालांकि, अभी तक इस पर कोई ठोस फ़ैसला नहीं हुआ है.

अल-जज़ीरा की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि तुर्की में महंगाई चरम पर है. ऐसे में तुर्की को क्षेत्रीय देशों से निवेश की दरकार है.

साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर सुरक्षा का ख़तरा भी है. सीरिया में हालात ख़राब हैं. ऐसे में तुर्की को इसराइल एक मज़बूत खिलाड़ी के तौर पर दिख रहा है. वहीं इसराइल के लिए मध्य पूर्व क्षेत्र में ईरान के दबदबे को संतुलित करने के लिए तुर्की बड़ी ताकत है.

क्या इस्लामिक देशों के आपसी मतभेद मिट सकेंगे?

क्या वाक़ई इस्लामिक देश फ़लस्तीनियों को लेकर आपसी मतभेद भुला देंगे? क्या इस्लामिक देशों की एकता से इसराइल थम जाएगा?

खाड़ी के कई देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद ने 2021 में बीबीसी से कहा था, ”1967 से पहले फ़लस्तीन और इसराइल समस्या अरब की समस्या थी लेकिन 1967 में अरब-इसराइल युद्ध में इसराइल की जीत के बाद से यह केवल इसराइल और फ़लस्तीन की समस्या रह गई है. अगर इसे कोई हल कर सकता है तो वे इसराइल और फ़लस्तीनी हैं.”

तलमीज़ अहमद ने कहा था, ”इस्लामिक देशों की प्रतिक्रिया दिखावे भर से ज़्यादा कुछ नहीं है. ज़्यादातर इस्लामिक देश राजशाही वाले हैं और वहां की जनता का ग़ुस्सा जनादेश के रूप में आने का मौक़ा नहीं मिलता है. ऐसे में वहाँ के शासक फ़लस्तीनियों के समर्थन में कुछ बोलकर रस्मअदायगी कर लेते हैं. जहाँ तक तुर्की की बात है तो अर्दोआन ने बाइडन के आने के बाद इसराइल के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की. वे राजदूत भेजने को भी तैयार थे लेकिन इसराइल ने कुछ दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसराइल के ख़िलाफ़ हाल के दिनों में अर्दोआन ने बहुत ही आक्रामक बयान दिए हैं.”

तलमीज़ अहमद का मानना कि तुर्की या सऊदी अरब से इसराइल का कुछ भी नहीं बिगड़ने वाला है और अगर कोई दख़ल दे सकता है तो वो अमेरिका है लेकिन वहाँ की दक्षिणपंथी लॉबी इसराइल के समर्थन में मज़बूती से खड़ी है.

तलमीज़ अहमद मानते हैं कि सऊदी अरब के आम लोगों की सहानुभूति फ़लस्तीनियों के साथ बहुत ही मज़बूत है. ऐसे में सऊदी शाही परिवार पर अप्रत्यक्ष रूप से आम लोगों का दबाव रहता है और इसी का नतीजा होता है कि वहाँ का विदेश मंत्रालय एक प्रेस रिलीज जारी कर देता है. ईरान ख़ुद को क्रांतिकारी स्टेट मानता है, इसलिए वो फ़लस्तीनियों के समर्थन में बोलता है और इस्लामिक वजहों से हमास का समर्थन करता है. हालांकि हमास को सारी मदद तुर्की और क़तर से मिलती है.”

फ़लस्तीनी मुद्दे को समर्थन देना ईरान की विदेश नीति का एक ज़रूरी पहलू रहा है और ख़बरों की मानें तो शनिवार को गज़ा से इसराइल पर हुए हमलों के बाद ईरान में जश्न का माहौल था.

हालांकि, ईरान ने उन आरोपों को ख़ारिज कर दिया, जिनमें कहा गया था कि गज़ा से हुए हमलों में उसकी भूमिका थी.

सऊदी अरब और इसराइल के बीच कभी कूटनीतिक रिश्ते नहीं रहे. लेकिन ईरान दोनों का साझा दुश्मन है. दोनों देश मध्य पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं. हालांकि सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन ने हाल ही में राजनयिक रिश्ते बहाल करवाया था लेकिन दोनों देशों के विरोधाभास ख़त्म नहीं हुए हैं. दोनों देशों के आपसी हित कई क्षेत्रों में टकराते हैं.

ईरान और सऊदी अरब दोनों ही इस्लामिक देश हैं लेकिन दोनों सुन्नी और शिया प्रभुत्व वाले हैं. ईरान शिया मुस्लिम बहुल है, वहीं सऊदी अरब सुन्नी बहुल.

लगभग पूरे मध्य-पूर्व में समर्थन और सलाह के लिए कुछ देश ईरान तो कुछ सऊदी अरब की ओर देखते हैं.

एके पाशा कहते हैं, “सऊदी अरब ख़ुद को इस्लाम में सबसे पवित्र मक्का-मदीना का रखवाला बताता है. ओआईसी का मुख्यालय भी जेद्दा में है. ईरान ही ऐसा देश है जिसकी नीति हमेशा से फ़लस्तीन के पक्ष में और इसराइल के ख़िलाफ़ रही है.”

पिछले कुछ समय में सऊदी अरब और इसराइल के बीच अमेरिका की मध्यस्थता में समझौता होने की चर्चा तेज़ हुई थी लेकिन हमास के हमले के बाद इस सौदे पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.

एके पाशा कहते हैं कि फ़लस्तीन के मुद्दे पर ईरान के रुख़ से उसकी लोकप्रियता बढ़ सकती है. ये सऊदी अरब के लिए परेशानी बढ़ाने वाला हो सकता है क्योंकि वो ख़ुद को इस्लामी दुनिया का नेता मानता है.

वो कहते हैं, “दोनों देशों के बीच चीन की मध्यस्थता में राजनयिक रिश्ते बहाल ज़रूर हुए लेकिन ये संबंध पूरी तरह सामान्य नहीं हैं. दोनों के बीच यमन का मसला है, लेबनान का मुद्दा है, लीबिया का ऐसा मुद्दा है जिन पर टकराव हो रहा है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम को काउंटर करने के लिए सऊदी अरब को अमेरिका से परमाणु सहयोग चाहिए. सऊदी अरब किसी भी कीमत पर अपनी स्थिति ईरान को नहीं खोना चाहता.”

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