तालिबान सरकार को लेकर बदल रहा है भारत का रुख़?

Hindi International

DMT : तालिबान  : (02 अक्टूबर 2023) : –

अगस्त, 2021 में जब दुनिया में सुपर पॉवर का दर्जा रखने वाले अमेरिका की सेना अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौटी तो देश ने एक बड़ा बदलाव देखा. दो दशकों से सत्ता से दूर रहे तालिबान ने फिर से देश पर क़ब्ज़ा कर लिया.

इस राजनीतिक बदलाव का मानवीय असर भी हुआ. दुनिया ने मानव इतिहास की एक बड़ी त्रासदी अपनी आंखों के सामने घटित होते हुए देखी.

अफ़ग़ानिस्तान के काबुल एयरपोर्ट पर माहौल ऐसा था कि लोग देश छोड़ने के लिए हवाई जहाज के पहियों तक पर लटक गए.

तालिबान के सत्ता में आने पर ज्यादातर देशों ने अपने दूतावास अफ़ग़ानिस्तान में बंद कर दिए, जिसमें भारत भी शामिल था, क्योंकि तब किसी भी देश ने तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी थी.

ऐसा करने के पीछे दूतावास ने एक बड़ी वजह भारत सरकार से समर्थन न मिलना बताया है, हालांकि भारत सरकार ने इस पर अभी तक कोई बयान नहीं दिया है.

दूतावास के आरोपों के बाद तालिबान के प्रति भारत के रुख को लेकर सवाल उठ रहे हैं. क्या भारत किसी ऐसे दूतावास का साथ नहीं देना चाहता, जिसे तालिबान सरकार का समर्थन न हो?

क्या भारत यह मान चुका है कि अब उसके पास अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए तालिबान सरकार के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है? और इस तरह के क़दम तालिबान के लिए कितने कारगर साबित हो सकते हैं?

दिल्ली में दूतावास के अलावा मुंबई और हैदराबाद में अफ़ग़ानिस्तान के वाणिज्य दूतावास हैं. यहां पहले की तरह कामकाज जारी रहेगा.

इस पूरे घटनाक्रम में दिल्ली दूतावास एक तरफ़ है और वाणिज्य दूतावास दूसरी तरफ़. दोनों एक दूसरे को अवैध बता रहे हैं.

दिल्ली में मौजूद अफ़ग़ानिस्तान दूतावास ने चेतावनी देते हुए कहा कि वाणिज्य दूतावास जो फैसला लेंगे, वह अफ़ग़ानिस्तान की चुनी हुई और वैध सरकार की जगह अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद तालिबान की गैरक़ानूनी सत्ता के हितों में होगा.

वहीं वाणिज्य दूतावास का कहना है कि भले दिल्ली में दूतावास बंद हो जाए, लेकिन वे स्वतंत्र रूप से सेवा करने के लिए तैयार हैं.

इसकी वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत फ़रीद मामुन्दज़ई को ग़नी सरकार ने नियुक्त किया था और वे तालिबान विरोधी हैं. उनकी ज़िम्मेदारी तालिबान सरकार ने ट्रेड काउंसलर कादिर शाह को देने की कोशिश की, जो कामयाब नहीं हो पाई.

यही वजह है कि पिछले दो सालों से अफ़ग़ानिस्तान की सरकार, दिल्ली में मौजूद अफ़ा़ान दूतावास की मदद नहीं कर रही है और उनके सामने संसाधनों का संकट था.

इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल स्टडीज़ के अध्यक्ष और कई देशों में राजदूत रहे चुके अशोक सज्जनहार कहते हैं, “ऐसा प्रतीत होता है कि मुंबई और हैदराबाद के जो वाणिज्य दूतावास हैं, उनके संबंध तालिबान सरकार के साथ ठीक हैं, तभी वे अपना काम कर पा रहे हैं. कांसुलर, सांस्कृतिक, व्यापार और स्कॉलरशिप जैसे कई काम हैं, जिन्हें वे देखते हैं, जिसे वे जारी रखेंगे.”

मतलब साफ है कि दिल्ली दूतावास बंद होने का मतलब अफ़ग़ानिस्तान के साथ रिश्ते खत्म होना नहीं है.

अशोक सज्जनहार कहते हैं, “पहले भी दिल्ली में मौजूद दूतावास के जरिए भारत, तालिबान सरकार से बात नहीं कर रहा था, तालिबान शुरू से ही इस दूतावास को मान्यता नहीं देता, क्योंकि यहां उनके लोग नहीं थे.”

“मानवीय मदद के लिए भारत की एक टेक्निकल टीम अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है, जो तालिबान सरकार के साथ संपर्क में है और वे लगातार भारतीय विदेश मंत्रालय को हालात की जानकारी देते रहते हैं.”

नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.

साल 1996 में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर काबुल पर कब्जा कर लिया और दो सालों के अंदर ही करीब 90 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर उनका नियंत्रण हो गया.

जो हिस्सा बचा, वो अहमद शाह मसूद का गढ़ पंजशीर था, जो लगातार तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ रहा था.

पांच सालों तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का शासन तो जरूर रहा, लेकिन भारत में दूतावास की जिम्मेदारी तालिबान विरोधी गुट नॉर्दन एलायंस के राजदूत मसूद खलीली ने संभाली.

इसका मतलब यह है कि तालिबान के सत्ता संभाल लेने के बावजूद भी भारत, अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में नॉर्दन एलायंस को ही सरकार मानता रहा.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर मो. मजहरुल हक़ कहते हैं, “1996 से 2001 तक भारत को कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन अब दो साल में ही भारत को दिक्कत होती दिख रही है और शायद भारत सरकार चाह रही है कि ग़नी सरकार के नियुक्त किए गए राजदूत यहां काम न करें.”

वे कहते हैं, “अब अफ़ग़ानिस्तान में प्रतिरोध की कोई मज़बूत आवाज़ दिखाई नहीं देती. अमेरिका और रूस पहले ही वापस लौट चुके हैं और दूसरे किसी मुल्क में ऐसी ताक़त नहीं दिखती कि वो तालिबान से लड़ाई लड़े.”

“ऐसे में भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए तालिबान से ही बात करनी होगी, भले वह आधिकारिक रूप से न हो और इस स्थिति में किसी तालिबान विरोधी किसी व्यक्ति का रहना ठीक नहीं है.”

दूसरी तरफ़ पूर्व राजदूत अशोक सज्जनहार कहते हैं, “अगर भारत अफ़ग़ानिस्तान दूतावास को बंद करने का नोटिस देता और कहता कि आप वहां की तालिबान सरकार का प्रतिनिधित्व नहीं करते, तब माना जाता कि भारत, तालिबान सरकार की तरफ़ जा रहा है, लेकिन भारत ने ऐसा नहीं किया.”

वे कहते हैं, “हमने दो सालों से ज्यादा समय तक ग़नी सरकार के राजदूत को और दूतावास को दिल्ली में चलने दिया. हमने कोई भी ऐसा क़दम नहीं उठाया कि आप देश से बाहर निकल जाइये. ये अफ़ग़ानिस्तान सरकार का अपना फैसला है.”

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी(यूएनएचसीआर) के मुताबिक साल 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद 16 लाख से ज्यादा नागरिकों को अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना पड़ा है.

सीरिया, यूक्रेन के बाद दुनिया में सबसे बड़ी तादाद अफ़ग़ानिस्तान के शरणार्थियों की है. भारत में क़रीब बीस हज़ार अफ़ग़ान नागरिक रहते हैं और हज़ारों छात्र पढ़ाई कर रहे हैं.

तालिबान के विरोधी और राजनीतिक कार्यकर्ता निसार अहमद शेरजाई को भी तालिबान के चलते अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना पड़ा. फिलहाल अपने परिवार के साथ वे दिल्ली में रहते हैं.

शेरजाई कहते हैं, “तालिबान के डर की वजह से हम लोग भागकर भारत आए. हम रिफ्यूजी बनकर रह रहे हैं. हम सालों से तालिबान का विरोध कर रहे हैं. सोचिए अगर कल को मेरा वीज़ा में कोई दिक्कत आ जाती है, तो मैं कहां जाऊंगा. अगर तालिबान का कोई आदमी दिल्ली दूतावास में आ गया, तो हम कैसे वहां जा पाएंगे. दूतावास हमारे लिए उम्मीद की तरह है.”

वे कहते हैं, “मैं अकेला नहीं हूं, मेरे जैसे करीब पच्चीस हज़ार लोग भारत में हैं. पासपोर्ट, वीज़ा और दूसरे कामों के अलावा भारतीय जेलों में अफ़ग़ानिस्तान के नागरिक भी हैं. उनकी देखभाल, पूछताछ के लिए भी हम दूतावास जाते हैं. चुनी हुई सरकार के राजदूत का भारत में न रहना, हमारे लिए एक नहीं बल्कि सौ मुश्किलें लेकर आएगा.”

शेरजई कहते हैं कि तालिबान के झंडे तले दुनिया भर में लोगों का क़त्ल किया गया, वो झंडा कैसे कहीं भी फहराया जा सकता है. भारत का फ़र्ज़ बनता है कि वो तालिबान से हटकर चुनी हुई सरकार के लोगों की मदद करे.

उनकी बेटी लामिया शेरजाई भी पिछले पांच सालों से भारत में हैं. वे कहती हैं, “हमारे सारे काम दूतावास से जुड़े हुए हैं. अगर तालिबान के लोग यहां आ गए तो हमारी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी. वे हमें टारगेट करना शुरू कर देंगे.”

ऐसी ही कुछ परेशानी अफ़ग़ान नागरिक अजमल की है. वे कहते हैं, “एक साल बाद मेरे पासपोर्ट की वैलिडिटी खत्म हो जाएगी. दूतावास के बंद होने के बाद हम कैसे पासपोर्ट को अपडेट करवा पाएंगे. अगर तालिबान समर्थित लोग होंगे, तो वे कभी हमारे पासपोर्ट को अपडेट नहीं करेंगे और ऐसे में हम रिफ्यूजी कार्ड भी नहीं बनवा पाएंगे.”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *