DMT : दिल्ली : (08 जुलाई 2023) : –
जनवरी 1892 में ब्रिटिश भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में एक बेहद अहम सम्मेलन का आयोजन किया गया.
यह सम्मेलन बंगाल के उस समय के छोटे लाट साब यानी लेफ्टिनेंट गवर्नर की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था. इसका मुख्य मक़सद यह तय करना था कि आने वाले दिनों में बंगाल, असम और बर्मा की सीमा से सटे पहाड़ी इलाके की प्रशासनिक रूपरेखा क्या होगी.
उस इलाके में रहने वाले कुकी-चिन-लुसाई (कई लोग इनको कुकी-चिन-मिज़ो के नाम से भी जानते हैं) जातीय समूह के साथ तब तक ब्रितानियों की पांच बार लड़ाई हो चुकी थी और कम-से-कम तीन और लड़ाइयों की ज़मीन तैयार हो रही थी.
कलकत्ता के उस कुकी-चिन-लुसाई सम्मेलन में ही इस बात का फ़ैसला किया गया था कि जिस विस्तृत इलाके में उन जातीय समूहों के लोग रहते हैं, उन्हें तीन हिस्सों में बांट दिया जाएगा.
चिन हिल्स पर बर्मा, लुसाई हिल्स के दक्षिणी हिस्से पर बंगाल और उत्तरी हिस्से पर असम का नियंत्रण रहेगा.
यही कारण है कि कुकी, चिन और लुसाई तबके के जो लोग खुद को एक ही जातीय समूह और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा मानते हैं, उनके बीच बंटवारे की लकीर करीब सवा सौ साल पहले खींच दी गई थी.
कहाँ बसे हैं कुकी समुदाय के लोग
मौजूदा दौर में मानव विज्ञानी इस जातीय समूह को एक साथ ‘जो’ के नाम से बुलाते हैं. इन तीनों को धर्म भी एक सूत्र में बांधता है. इनमें से ज्यादातर लोग ईसाई हैं.
इस समय ये लोग भारत में मिज़ोरम, मणिपुर और नगालैंड के अलावा पड़ोसी म्यांमार के चिन स्टेट के चिन हिल्स और आसपास के इलाके और बांग्लादेश के पर्वतीय चटगाँव इलाके में रहते हैं. यानी अब कुकी-चिन-लुसाई जनजाति का पारंपरिक निवास स्थान तीन देशों की सीमाओं में बंटा है.
लेकिन बीते दो-ढाई वर्षों के दौरान उन इलाकों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिसने तीनों देशों में फैले ‘जो’ जनजाति के लोगों को एक-दूसरे के क़रीब लाने में अहम भूमिका निभाई है. संयोगवश मिज़ोरम इन घटनाओं के केंद्र के तौर पर उभरा है.
मसलन, फ़रवरी, 2021 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद वहां की सेना ने चिन विद्रोहियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर अभियान शुरू किया था. उसके बाद से अब तक कम से कम 50,000 शरणार्थियों ने म्यांमार से भाग कर मिज़ोरम में शरण ली है.
इसी तरह, बांग्लादेश के पर्वतीय चटगाँव इलाके में भी सेना और सशस्त्र कुकी-चिन नेशनल फ्रंट (केएनएफ) के बीच हुई हिंसक झड़पों के बाद कुकी-चिन समुदाय के सैकड़ों लोगों ने सीमा पार करके मिजोरम के लॉन्गतलाई ज़िले के राहत शिविरों में शरण ली है.
इस तबके को बांग्लादेश में बम जनजाति भी कहा जाता है.
12 हज़ार लोग हुए बेघर
दूसरी ओर, करीब दो महीने पहले पड़ोसी राज्य मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच बड़े पैमाने पर शुरू हुई जातीय हिंसा के बाद कुकी जनजाति के कम-से-कम 12 हज़ार लोगों को घर-बार छोड़ कर पलायन करना पड़ा है. फिलहाल इन सबका अस्थायी ठिकाना मिज़ोरम ही है.
छोटे से पर्वतीय राज्य मिज़ोरम ने बाहर से आने वाले इन शरणार्थियों को अपना भाई-बहन मानते हुए उनको शरण दी है और खाने-पीने का इंतजाम किया है. लेकिन वहां ‘जो’ समुदाय की उपेक्षा के खिलाफ नाराजगी और विरोध भी सुगबुगा रहा है.
विश्लेषकों का कहना है कि ‘जो’ जनजाति का राष्ट्रवादी आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है. लेकिन हाल की घटनाओं से इस जनजाति के लोग ग़ुस्से में हैं.
कलकत्ता सम्मेलन की विरासत
कलकत्ता के चिन-लुसाई सम्मेलन ने ‘जो’ जातीय समूह के भूगोल को ऐसी पक्की सीमा में बांट दिया था जिसे वह लोग आज तक स्वीकार नहीं कर सके हैं.
कलकत्ता के फोर्ट विलियम में साल 1892 में 25 से 29 जनवरी तक आयोजित उस सम्मेलन से पहले कुकी-चिन और लुसाई समुदाय के लोग समान स्तर पर और एकजुट थे. मिज़ोरम की राजधानी आइजोल में तमाम विमर्श और सेमिनारों में इस एकता की बात घूम-फिर कर आती रहती है.
अविभाजित बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चार्ल्स अलफ्रेड एलियट ने उस सम्मेलन की अध्यक्षता की थी.
उस सम्मेलन में सामरिक और नागरिक प्रशासन के तमाम वरिष्ठ अधिकारियों ने भी शिरकत की थी. उनमें ब्रिटिश शासित बर्मा के चीफ कमिश्नर सर अलेक्जेंडर मैकेंजी और असम के चीफ कमिश्नर विलियम ई वार्ड भी शामिल थे.
मणिपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉक्टर पुन ख्यान पाऊ ने अपने शोध में कहा है कि उस सम्मेलन में ज्यादातर लोग समग्र चिन-लुसाई हिल्स को एक प्रशासनिक छतरी के नीचे लाने के पक्षधर थे. लेकिन उस सिफारिश को कभी लागू नहीं किया गया.
दरअसल, बर्मा के कमिश्नर किसी भी कीमत पर चिन हिल्स का नियंत्रण छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए. सर अलेक्जेंडर मैकेंजी की दलील थी कि चटगांव या शिलौंग की बजाय रंगून से उस इलाके पर शासन करना ज्यादा आसान होगा.
गवर्नर जनरल लार्ड लैंसडाउन ने भी बाद में उनकी यही राय मान ली.
उसी साल दो अगस्त को भारत सरकार ने रंगून के चीफ कमिश्नर को भेजे टेलीग्राम में लिखा था- चिन हिल्स फ़िलहाल बर्मा के अधीन ही रहेगा.
बाद में इस फैसले को कभी बदला नहीं जा सका. साल 1948 में बर्मा (अब म्यांमार) की स्वाधीनता तक चिन स्टेट उसी का हिस्सा बना रहा.
दूसरी ओर, भारत के विभाजन के कारण कुकी-चिन और मिज़ो तबके की सैकड़ों साल पुरानी ज़मीन तीन देशों की सीमाओं में बंट गई.
लेकिन अपने अधिकारों की मांग में किए जाने वाले आंदोलनों में उस इलाके के लोगों को हमेशा पड़ोसी देशों के एक ही सांस्कृतिक विरासत वाले लोगों से मदद मिलती रही है.
मसलन, साल 1966 में ललडेंगा के नेतृत्व में मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने जब भारत सरकार के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था, तब उन्हें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के चटगांव इलाके में शरण मिली थी.
मिज़ो गुरिल्ले क़रीब 22 साल तक वहीं से सशस्त्र अभियान चला रहे थे.
उससे भी पहले साल 1964 में बर्मा में चिन नेशनल फ्रंट ने जब स्वाधीन चिनलैंड की मांग में लड़ाई शुरू की थी तब भारत के कुकी-चिन-मिज़ो तबके के लोगों ने उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाया था.
आज भी म्यांमार के चिन डिफेंस फ़ोर्स (सीडीएफ) और चिन नेशनल आर्मी (सीएनए) के विद्रोहियों को मिज़ोरम में शरण मिलती रही है. उनको स्थानीय लोगों का पूरा समर्थन हासिल है.
दूसरी ओर, बांग्लादेश में कुछ समय पहले गठित कुकी-चिन नेशनल फ्रंट या केएनएफ के प्रति भी मिज़ोरम में काफी सहानुभूति है. मणिपुर से भाग कर आने वाले कुकी लोगों के मामले में भी यही बात लागू होती है.
‘जो राष्ट्रवाद’ का पुनर्जन्म?
विश्लेषक इस बात से तो सहमत हैं कि हाल की घटनाएं विचलित करने वाली हैं. लेकिन वो ये मानने को तैयार नहीं हैं कि तीन देशों में फैले कुकी-चिन और मिज़ो समुदाय के लोगों में इससे तत्काल किसी आंदोलन के भड़कने का खतरा है.
मिज़ोरम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. डोंगेल कहते हैं, “विभिन्न इलाकों में अत्याचार का शिकार होने के बावजूद जो जनजाति के लोग फिलहाल यहां किसी सार्वभौम देश की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं. अलग-अलग जगह उनके आंदोलन की मांग भी भिन्न है.”
उन्होंने आइजोल से फोन पर बीबीसी बांग्ला से कहा, “चिन तबके के लोग म्यांमार में लोकतंत्र समर्थकों के साथ मिल कर सैन्य शासन के खिलाफ लड़ रहे हैं. वह लोग म्यांमार से अलग नहीं होना चाहते, बल्कि चिन स्टेट के तहत एक स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रहे हैं. इसी तरह बांग्लादेश में भी उपेक्षित कुकी और चिन तबके के लोग पर्वतीय चटगांव इलाके के भीतर ही स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रहे हैं.”
भारत के मणिपुर में कुकी तबके की समस्या कुछ और है.
डोंगेल के मुताबिक़, वहां सरकार और प्रशासन मैतेयी तबके का सीधा समर्थन करते हुए अल्पसंख्यक कुकी तबके के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रही है.
डोंगेल का कहना है, “ये तमाम घटनाएं एक साथ हो रही हैं और इसका गंभीर असर मिज़ोरम पर पड़ रहा है. यह कहना मुश्किल है कि मिज़ोरम इस घातक त्रिपक्षीय दबाव को कब तक आसानी से सहन कर सकेगा. यह परिस्थिति और ज्यादा दिनों तक चलती रही तो नतीजे के बारे में सोच कर चिंता होती है.”
दिल्ली स्थित जेएनयू में स्कूल ऑफ सोशल साइंस में प्रोफेसर औऱ समाज विज्ञानी जय पाचूयाऊ मानती हैं कि परिस्थिति चिंताजनक जरूर है. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि यह निकट भविष्य में किसी ‘इंटीग्रेटेड आइडेंटिटी मूवमेंट’ को बढ़ावा देगा.
वो कहती हैं, “यह सही है कि इस जातीय समूह का एक हिस्सा ग्रेटर मिज़ोरम के गठन की मांग को लेकर भी आंदोलन कर चुका है. लेकिन उस दौरान कभी म्यांमार और बांग्लादेश के जो बहुल इलाकों को शामिल करने की मांग नहीं की गई थी. दूसरी बात यह है कि इस जातीय समूह के लोगों में जितनी समानताएं हैं, उतनी ही भिन्नता भी है. जो जनजाति के अलग-अलग गुटों के बीच प्रतिद्वंद्विता भी है.”
पाचूयाऊ ने रूस-यूक्रेन युद्ध की मिसाल देते हुए कहा कि जिस तरह पूर्वी यूरोप के हंगरी और पोलैंड जैसे देशों ने युद्धग्रस्त यूक्रेनियों के लिए अपनी सीमाएं खोल दी थीं, मिज़ोरम ने भी ठीक उसी तरह आस-पास के इलाकों से आने वाले कुकी-चिन तबके के लोगों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं.
पाचूयाऊ के अनुसार, पोलिश या हंगेरियन लोग मानते हैं कि यूक्रेन के लोगों के साथ उनकी जातीय समानता है. इसलिए उन्होंने अपनी सीमाएं खोल दी थी. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वे लोग यूक्रेनी हो गए. मिज़ोरम का मामला भी काफी हद तक ऐसा ही है.
दिल्ली और आइजोल की राजनीति
गौर करने वाली बात यह है कि मिज़ोरम सरकार, स्थानीय लोगों और चर्च जैसे संगठनों के म्यांमार या बांग्लादेश से आने वाले कुकी-चिन तबके के लोगों के लिए मदद का हाथ बढ़ाने के बावजूद भारत सरकार ने अब तक उनको शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया है.
यह दर्जा मिलना तो दूर, उनके खाने-पीने और रहने के लिए भी केंद्र सरकार ने अब तक एक पैसे की सहायता नहीं दी है.
मिज़ोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा भी इस मामले में अपनी नाराजगी नहीं छिपा सके हैं.
गौर करने की बात ये है कि जोरमथंगा की पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट भाजपा की सहयोगी है.
कुछ महीने पहले आइजोल में बीबीसी बांग्ला के साथ एक मुलाकात में ज़ोरमथंगा ने बताया था, “मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक सबसे बार-बार यह अनुरोध किया है कि उन लोगों को शरणार्थी का दर्जा भले मत दें, मानवीय आधार पर कम से कम उनके रहने और खाने का इंतजाम तो कर दें.”
लेकिन मुख्यमंत्री के उस अनुरोध का अब तक कोई असर नहीं हुआ है.
विश्लेषकों का कहना है कि म्यांमार के साथ संबंध बेहतर बनाए रखने के लिए भारत सरकार ने वहां से आने वाले शरणार्थियों की ओर से आंखें फेर रखी हैं.
क़रीब छह महीने पहले बांग्लादेश से आने वाले कुकी-चिन तबके के लोगों के मामले में यही बात लागू होती है. ढाका के साथ संबंधों की राजनयिक मजबूरी के कारण ही दिल्ली ने अब तक इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया है.
मिज़ो नेशनल फ्रंट के वाइस प्रेसिडेंट और पूर्व सांसद वान ललजावमा हताश स्वर में कहते हैं, “दिल्ली की जो मर्जी हो करे, लेकिन कुकी-चिन तबके के लोग हमारा परिवार हैं. यह लोग हमारे मां और भाई-बहन हैं. हम किसी भी परिस्थिति में उनको नहीं छोड़ सकते.”
वे कहते हैं, “मणिपुर में हमारे कुकी भाइयों का घर-बार जलाया जा रहा है. उन पर बेवजह गोलियां चलाई जा रही हैं और हत्याएं की जा रही हैं. लेकिन केंद्र सरकार मूकदर्शक की भूमिका में है. आखिर हम लोग यह सब कब तक सहेंगे?”
इसी पृष्ठभूमि में इस साल के आखिर तक मिजोरम में विधानसभा चुनाव होना है.
कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कुकी-चिन-मिजो की पहचान की जद्दोजहद एमएनएफ को जल्द ही भाजपा से नाता तोड़ने पर मजबूर कर देगी और वह अकेले अपने बूते ही चुनाव लड़ेगी.
लेकिन यह बात एकदम साफ हो गई है कि तीन देशों में कुकी-चिन-मिज़ो तबके के लोगों के साथ जो कुछ हो रहा है, उस अत्याचार और उपेक्षा के कारण ‘जो’ समुदाय की राजनीति एक नई दिशा लेने वाली है.