DMT : पश्चिम बंगाल : (05 अक्टूबर 2023) : – बात 13 नंबवर 1989 की है. सुबह – सुबह पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महाबीर कोयला खदान में 65 मज़दूरों के फँसने की ख़बर आई.
खदान में पानी भर रहा था. छह मज़दूरों की मौत हो चुकी थी. अलग-अलग तरीकों से मज़दूरों तक पहुँचने की कोशिश सफल नहीं हो रही थी. चारों ओर अफ़रा-तफ़री का माहौल था.
ऐसे हालात में कोल इंडिया में काम करने वाले एक शख़्स ने एक ऐसी तरकीब का इस्तेमाल करके 65 मजदूरों की जान बचाई गई जिसका पहले कभी इस्तेमाल नहीं किया गया था.
इसी बचाव अभियान पर निर्देशक टीनू देसाई ने मिशन रानीगंज – द ग्रेट भारत रेस्क्यू फ़िल्म बनाई है जिसमें जसवंत सिंह गिल का किरदार अक्षय कुमार निभा रहे हैं. वहीं, फ़िल्म की हीरोइन परिणिति चोपड़ा हैं.
‘कैप्सूल गिल’ का वो रिस्की मिशन
अपने पिता के इस ख़तरनाक मिशन को बयां करते हुए सरप्रीत सिंह गिल बताते हैं कि जसवंत सिंह गिल ने इस बचाव अभियान को अंजाम देने से पहले अपने वरिष्ठ अधिकारी को चौंका दिया था.
वह कहते हैं, “जसवंत जी, अपने चेयरमैन के पास गए और पूछा कि जो आदमी नीचे खदान में बचाव अभियान के लिए जाएगा उसे शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक रूप से फिट होना चाहिए? क्या उसे भीड़ को संभालना आना चाहिए? खदान की समझ होनी चाहिए? चेयरमैन हाँ हाँ बोलते रहे.”
चेयरमैन की हामी के बाद जैसे ही जसवंत सिंह ने कहा कि ये सारी खूबियां मेरे अंदर हैं और मैं मिशन के लिए जा रहा हूं तो चेयरमैन पूरी तरह चौंक गए.
उन्होंने ये कहते हुए जसवंत सिंह को रोकने की कोशिश की कि वो इतने सीनियर अफ़सर को जोखिम में डालने की अनुमति नहीं दे सकते.
लेकिन जसवंत सिंह ने कोई बात नहीं सुनी और कहा कि ‘सुबह लौटकर आपके साथ चाय पिऊंगा.’
जान जोखिम में, लेकिन जुबां पर हंसी
जसवंत सिंह बेहद हँसमुख और मज़ाकिया किस्म के इंसान थे और उनका ये पहलू तनाव के उस दौर में भी बरकरार रहा.
जब वो खदान के अंदर जा रहे थे तो एक लोकल रिपोर्टर उनसे पूछने लगा कि आपका जन्म कहां हुआ, पढ़ाई कहां हुई, परिवार में कौन है, पत्नी से अनुमति ली या नहीं? तो जसवंत सिंह ने मज़ाक में उससे पूछा, कि इतनी जानकारी ले रहे हो, कल मेरी ऑब्यूचरी लिखोगे क्या?
जसवंत सिंह गिल तो अब नहीं रहे लेकिन उनके बेटे सरप्रीत सिंह गिल कहते हैं कि पिता से सुने सारे किस्से उन्हें मुंह ज़बानी याद हैं.
अमृतसर के सठियाल में 1939 में जन्मे जसवंत सिंह गिल ने 60 के दशक में इंडियन स्कूल ऑफ़ माइन्स, धनबाद से पढ़ाई की और 1989 में हुए हादसे के वक़्त बतौर जनरल मैनेजर काम कर रहे थे.
13 नवंबर, 1989 के दिन क्या क्या और कैसे कैसे हुआ सरप्रीत सिंह ने बीबीसी से साझा किया.
सरप्रीत सिंह ने बताया, “पापा को हादसे के बारे में 13 नवंबर 1989 की सुबह पता चला. हालांकि, वो उस खदान में काम नहीं करते थे. लेकिन ख़बर सुनते ही वो खदान की तरफ चले गए”
कैसे हुआ था वो खदान हादसा?
खदान में जिस परत से कोयला निकाला जा चुका था वहाँ आसपास की नदी से पानी इकट्ठा होना शुरु हो गया था.
अगली परत 330 फुट पर थी जहां मज़दूर काम कर रहे थे. वहाँ पर एक पिलर था जहाँ ब्लास्ट नहीं करना था लेकिन ग़लती से किसी ने वहाँ ब्लास्ट कर दिया.
ब्लास्ट होने के बाद पिलर ध्वस्त हो गया और सारा पानी नीचे खदान में आ गया. ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ा वाटरफॉल हो.
इसके बाद खदान में पंप लगाकर पानी निकालने की कोशिश शुरु हो गई लेकिन 71 खनिकों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल रही थी.
खदान के अंदर जाने के लिए चमड़े की एक मज़बूत बेल्ट लटका दी गई ताकि रेस्क्यू टीम अंदर जाकर लोगों को निकाल सके.
लेकिन पानी का प्रेशर इतना ज़्यादा था कि उसने बेल्ट के चिथड़े कर दिए.
पत्रकार बिमल देव गुप्ता उस दिन रानीगंज की उसी खदान पर मौजूद थे. उनके मुताबिक़ पूरे कस्बे में हाहाकर मच गया और आंतक का माहौल था.
ऐसे माहौल में जसवंत सिंह वहाँ पहुँचे.
स्थिति का ज़ायज़ा लेते ही उन्होंने सुझाव दिया कि एक नया बोर ड्रिल किया जाए. साथ ही स्टील का एक कैप्सूल बनाने का प्रस्ताव आया जिसे खदान में भेजा जाना था.
इसके जरिए लोगों को एक-एक करके बाहर निकाला जाना था.
बिमल देव गुप्ता आगे बताते हैं, “तब दिक्कत ये थी कि किसी इंसान को ठीक से ले जाने के लिए कम से कम 22 इंच का बोर या सुराग होना चाहिए था. लेकिन ड्रिलिंग के लिए जो औज़ार (कटिंग बिट) उपलब्ध थे उनसे 8 इंच तक ही सुराग हो सकता था. लेकिन जसवंत सिंह और कारीगरों ने जुगाड़ लगाया. 8 इंच के कटिंग बिट पर वेल्डिंग के ज़रिए कई बार नए कटिंग बिट जोड़े. किसी तरह 21 इंच तक पहुँचाया.”
अब परेशानी ये थी कि जिस कैप्सूल की बात हो रही थी वो फिलहाल कल्पना मात्र था.
सरप्रीत सिंह बताते हैं, “कैप्सूल का डिज़ाइन फौरन वहीं पर बनाया गया और पास की फैक्टरी में भेजा गया. लेकिन दो बार वो डिज़ाइन रिज़ेक्ट हो गया. तीसरी बार डिज़ाइन पर मोहर लगी. ये सब करते करते 13 से 15 नंवबर की रात हो गई और जसवंत सिंह ने खदान मे जाने का जोखिम भरा फैसला किया.”
इस ख़तरनाक मिशन को अंजाम देते वक्त क्या उन्हें वाकई डर नहीं लगा? इस बारे में जसवंत सिंह ने कई बार मीडिया इंटरव्यूज़ में बात की थी.
सरप्रीत सिंह ने यही बात बीबीसी को बताई.
सरप्रीत ने कहा, “जिस रात कैप्सूल को कोयला खदान में ले जाया गया, अचानक वो बहुत तेज़ी से गोल गोल घूमने लग गया. कुछ पलों के लिए कैप्सूल रुका और फिर उल्टी दिशा में बहुत तेज़ी से घूमने लगा. उस एक पल पापा को लगा, कि उन्होंने ग़लती कर दी क्या?
उनका दिमाग़ पूरी तरह सुन्न हो गया. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, क्या वापस चले जाएं? उन्हें लग रहा था कि क्या वो ये कर पाएंगे?”
बीच खदान में हौसले का इम्तिहान
सरप्रीत सिंह के मुताबिक ये हालत सिर्फ़ 30-35 फुट की गहराई में उतरने के बाद की थी. अभी 330 फुट और नीचे जाना था.
सरप्रीत सिंह अपने पिता के साथ हुई बातचीत को साझा करते हैं.
वह कहते हैं कि उनके पिता बताते थे कि ‘उन दिनों महाभारत आता था टीवी पर. मुझे अर्जुन का किस्सा याद आया कि कैसे उसने मछली की आँख पर ध्यान लगाया था. मैंने भी ध्यान लगाना शुरु किया. खदान के अंदर एक छोटी सी सफ़ेद रोशनी कहीं से दिखी. बस उसी पर अपना ध्यान केंद्रित किया. उसके बाद मुझे अहसास नहीं हुआ कि कैप्सूल घूम रहा है या नहीं. रोशनी को देखते – देखते पता नहीं कब मैं नीचे पहुँच गया. वो रोशनी धीरे धीरे धूमिल हो गई. कैप्सूल से निकलकर वहाँ फँसे पहले मज़दूर को ऊपर भेजा.”
सरप्रीत सिंह कहते हैं, “मेरे पिता ने नहीं बोला लेकिन मैं बताना चाहता हूँ कि हर मज़दूर को निकालने के बाद कैप्सूल खाली नीचे जाता था, ऐसा 65 बार हुआ. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो कहे कि हम भी नीचे जाते हैं और गिल साहब की मदद करते हैं या बाकी का काम हम कर लेते हैं. वो इसलिए कि जितनी बार कैप्सूल नीचे जा रहा था, रिस्क बढ़ता जा रहा था, खदान में पानी भरता जा रहा था, अंदर हवा कम हो रही थी, कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही थी.”
बिमल बताते हैं, “जब 65 खनिकों को निकालने के बाद जब जसवंत सिंह गिल सुबह बाहर आए तो पूरी दुनिया वहाँ इकट्ठा थी. ऐसा लग रहा था मानो भारतीय सेना का एक सैनिक युद्ध जीतकर बाहर आया हो. मज़दूरों के परिवार वाले आगे बढ़कर गिल जी के पैर छूने की कोशिश कर रहे थे.”
सरप्रीत के मुताबिक, उनके पिता बताते थे कि वहाँ केवल बंगाली लोग थे लेकिन लोग नारे लगा रहे थे- बोले सो निहाल.
गिल के नाम के जयकारे लग रहे थे और फूलों के हार उनकी पगड़ी के ऊपर तक पहुँच गए थे. कंधों पर उठाकर उन्हें कार तक पहुँचाया गया.
हर जुबां पर चढ़ा 65 जान बचाने वाले का किस्सा
पत्रकार बिमल देव गुप्ता ने इस बचाव अभियान के बाद अस्पताल में मज़ूदरों का इंटरव्यू किया था.
उन्होंने एक किताब भी लिखी है जिसका शीर्षक ‘बढ़ते कदम’ है.
अपनी किताब में वो लिखते हैं, “शालीग्राम सिंह वो पहला मज़दूर था जो बाहर आया. शालीग्राम और दूसरे मज़दूरों ने बताया कि हादसे के वक़्त लगा कि किसी ने हमारे दिल को मुठ्ठी में बंद कर दिया हो. इंटरकॉम के ज़रिए परिवार से बात करवाने की पेशकश हमने ठुकरा दी. हमें लगा कि उनका रोना सुनकर हम कमज़ोर पड़ जाएँगे. लेकिन जब पता चला कि ऊपर हमें बचाने की कोशिश ज़ोरों से जारी है तो हम एक दूसरे का हौसला बढ़ाने लगे.”
वहीं एबीपी की एक इंटरव्यू में जसवंत सिंह गिल ने ये किस्सा बताया था जिसकी तस्दीक सरप्रीत भी करते हैं.
दरअसल जब जसवंत सिंह गिल मज़दूरों के साथ खदान में थे तो मज़दूर लगातार पूछते रहे कि आप हो कौन- आर्मी से हो, एयर फ़ोर्स से, फायर ब्रिगेड से हो लेकिन जसवंत ये बताकर मज़दूरों को असहज नहीं करना चाहते थे कि वो जनरल मैनेजर हैं.
उन्होंने मजदूरों से कहा कि मुझे पता चला कि ‘तुम लोग नीचे पिकनिक मना रहे हो तो मैं भी आ गया पिकनिक मनाने.’
सरप्रीत बताते हैं, “जसवंत जी ने जिन लोगों की जान बचाई थी, वो मज़दूर बताते थे उनके घर में सबसे ऊपर उनके इष्ट देवता की मूर्ति होती है और उसके बाद गिल जी की तस्वीर.”
सरप्रीत सिंह बताते हैं कि इस घटना पर फ़िल्म बनाए जाने की बात सुनकर जसवंत सिंह की क्या प्रतिक्रिया थी.
सरप्रीत बताते हैं, “पापा को लगा कि कोई मज़ाक कर रहा है. उन्होंने मुझे बुलाया और कहा यार लोकां ने मज़ाक ही शुरु कर दित्ता है, कोई डाइरेक्टर फ़ोन पर कह रहा है कि मुझ पर फ़िल्म बनाएगा”
इसके बाद सरप्रीत ने उस नंबर पर टीनू देसाई से बात की.
ये मज़ाक नहीं था, बल्कि उनकी टीम वाकई अमृतसर पहुँच गई,पूरी कहानी सुनी और जसप्रीत सिंह को को रानीगंज लेकर गए. वहाँ जसप्रीत सिंह बरसों बाद उन मज़दूरों से भी मिले जिनकी जान बचाई थी. वो उन्हें दंडवत प्रणाम कर रहे थे.
मिला ‘सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक’
दिलचस्प बात ये है कि जसवंत सिंह के परिवार को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि बंगाल में कोई ख़तरनाक मिशन चल रहा है.
परिवार अमृतसर में रहता था. मिशन के बाद एक दिन ट्रंक कॉल आया कि शाम को दूरदर्शन पर बुलेटिन देखना.
सरप्रीत हँसते बताते हैं, “जैसे ही हमने 16 नंवबर 1989 को टीवी चलाया तो हेडलाइन चल रही थी कि बंगाल में 65 मज़दूर बचाए गए, मेरी दादी ने देखा और कहा कि कोई रोको इसनू. मेरे चाचा हँसते हुए बोले कि अब तो वो कर चुका जो इसे करना था.”
इस तरह रानीगंज मिशन के बाद जसवंत सिंह गिल बन गए कैपसूल गिल जिन्होंने अपनी सूझ बूझ, दिमाग़ और दिलेरी से 65 लोगों की ज़िंदगी बचाई.
जनवरी 2019 में जब मेघालय में बड़ा कोयला खदान हादसा हुआ था तो बीबीसी के सहयोगी पत्रकार दिलीप शर्मा वहाँ मौजूद थे.
वो बताते हैं कि जसवंत सिंह गिल को ख़ास तौर पर मदद के लिए बुलाया गया था.
जसवंत सिंह के बेटे सरप्रीत सिंह गिल को मलाल है कि पंजाब और पश्चिम बंगाल सरकार ने जसवंत सिंह की बहादुरी को सम्मानित नहीं किया.
वो अपनी बात समेटते हुए कहते हैं, “हम पैसे या ज़मीन की नहीं सम्मान की बात कर रहे हैं. पहले दुख होता था, अब ग़ुस्सा है”,