गोवा को जब भारतीय सैनिकों ने पुर्तगालियों से कराया आज़ाद

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DMT : गोवा  : (05 अगस्त 2023) : –

विदेश में रहकर आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे कृष्ण मेनन जैसे भारतीय नेता गोवा को भारत के चेहरे पर एक ‘फुंसी’ कहते थे. नेहरू से अक्सर वो कहा करते थे कि “गोवा को घर लाना है.”

गोवा के बारे में नेहरू का एक तरह से ‘मेंटल ब्लॉक’ था. उन्होंने पश्चिमी देशों को आश्वासन दे रखा था कि वो ताक़त से गोवा को भारत में मिलाने की कोशिश नहीं करेंगे लेकिन कृष्ण मेनन उन्हें समझाने में कामयाब रहे कि वो पुर्तगाल के इस उपनिवेश के बारे में दोहरा मापदंड नहीं अपना सकते.

एक तरफ़ तो वो रंगभेद समर्थक देशों की आलोचना कर रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ़ भारत से सटे हुए गोवा पर पुर्तगाल के कब्ज़े के बारे में बिल्कुल चुप हैं.

जब पुर्तगालियों को शांति से गोवा से निकालने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं तो नेहरू ने सेना भेजकर गोवा को आज़ाद करने की योजना को हरी झंडी दे दी.

हाल में प्रकाशित किताब ‘गोवा, 1961 द कंप्लीट स्टोरी ऑफ़ नेशनलिज़्म एंड इंटिग्रेशन’ के लेखक वाल्मीकि फ़लेरो लिखते हैं, “दो दिसंबर, 1961 से भारतीय सैनिकों की लामबंदी शुरू हुई थी. 50वीं पैराशूट ब्रिगेड को आगरा, हैदराबाद और मद्रास से बेलगाँव लाया गया.”

“उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिण भारत में 100 से अधिक यात्री ट्रेनों के रास्ते बदल कर ब्रिगेड के सैनिकों को बेलगाँव पहुंचाया गया. यात्री ट्रेनों के अलावा कई मालगाड़ियों का भी बेलगाँव तक सैनिक साज़ो-सामान पहुँचाने में इस्तेमाल किया गया. मालगाड़ियों का रास्ता बदलने के कारण अहमदाबाद की कई मिलों को कोयले की कमी के कारण बंद करना पड़ा.”

  • पुर्तगाल ने अपना पोत गोवा भेजा
  • भारतीय कार्रवाई से निपटने के लिए पुर्तगाल ने भी तैयारी शुरू कर दी. उसने अपने एक जलपोत ‘इंडिया’ को गोवा भेज दिया ताकि ‘बैको नेशनल अल्ट्रामेरिनो’ में पुर्तगाली नागरिकों के जमा सोने और उनके बीवी-बच्चों को लिस्बन भेजा जा सके.
  • पीएन खेड़ा अपनी किताब ‘ऑपरेशन विजय, द लिबरेशन ऑफ़ गोवा एंड अदर पोर्टुगीज़ क़ॉलोनीज़ इन इंडिया’ में लिखते हैं, “नौ दिसंबर, 1961 को पुर्तगाली जलपोत लिस्बन से मोरमुगाव पहुँचा. पोत ने 12 दिसंबर को लिस्बन के लिए वापसी यात्रा शुरू की. इस पोत पर 380 लोग आ सकते थे लेकिन उस पर 700 महिलाएँ और बच्चे भरकर भेजे गए. जहाज़ में इतने लोग थे कि कुछ लोग टॉयलेट तक में बैठे हुए थे.”
  • दिसंबर, 1961 में भारत में अमेरिका के राजदूत जॉन कीनेथ गैलब्रेथ ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कई बार मिलकर गोवा में सैनिक कार्रवाई के उनके फ़ैसले को टालने का दबाव बनाया.
  • गोवा में सैनिक कार्रवाई का पहले से तय दिन 14 दिसंबर था जिसे आगे बढ़ाकर 16 दिसंबर कर दिया गया. 15 दिसंबर को गालब्रेथ ने नेहरू के साथ-साथ उनके वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मुलाकात की.
  • एडिला गायतोंडे अपनी किताब ‘इन सर्च ऑफ़ टुमॉरो’ में लिखती हैं, “मोरारजी गोवा में हिंसा इस्तेमाल किए जाने के ख़िलाफ़ थे क्योंकि वो निजी रूप से औपनिवेशिक समस्याओं के हल के लिए अहिंसा के इस्तेमाल किए जाने के पक्षधर थे.”
  • “पुर्तगाली अंतिम समय में अमेरिकी कूटनीति के सफल हो जाने के प्रति इतने आश्वस्त थे कि 16 दिसंबर की रात को पुर्तगाली गवर्नर जनरल और उनकी सेना के कमांडर इन चीफ़ अपने एक दोस्त की बेटी की शादी के भोज में शामिल हुए थे.”
  • 17 दिसंबर को अमेरिकी राजदूत ने नेहरू से मिलकर प्रस्ताव दिया कि भारत गोवा के ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई छह महीनों के लिए टाल दे. उस बैठक में मौजूद कृष्ण मेनन ने नेहरू और गैलब्रेथ से कहा कि ‘अब बहुत देर हो चुकी है. भारतीय सैनिक गोवा में घुस चुके हैं और उन्हें वापस नहीं बुलाया जा सकता.’
  • कई वर्षों बाद कृष्ण मेनन ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि ये सही नहीं था. भारतीय सैनिकों ने तब तक गोवा की सीमा पार नहीं की थी.
  • उसी रात कृष्ण मेनन ने गोवा की सीमा पर पहुँचकर भारतीय सैनिकों का निरीक्षण किया था. मेनन के नेहरू को सैनिक कार्रवाई का समय बताने से पहले भारतीय सेना गोवा में घुस चुकी थी.

मामूली प्रतिरोध का सामना करना पड़ा

भारतीय सेना ने 17-18 दिसंबर की आधी रात को गोवा की सीमा पार की. टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने 19 दिसंबर, 1961 के अख़बार में बैनर हेडलाइन छापी, ‘अवर ट्रूप्स एंटर गोवा, दमन एंड दीऊ एट लास्ट.’

भारतीय सेना को गोवा में घुसने के लिए मामूली प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. गोवा पर कब्ज़ा करने की ज़िम्मेदारी मेजर जनरल कैंडेथ के नेतृत्व में 17 इंफ़ैट्री डिवीज़न को दी गई थी.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ़्टर गाँधी’ में लिखते हैं, “18 दिसंबर की सुबह भारतीय सैनिक उत्तर में सावंतवाड़ी, दक्षिण में कारवार और पूर्व में बेलगाँव से गोवा में घुसे.”

“इस बीच भारतीय विमानों ने पूरे गोवा में पर्चे गिरा कर गोवावासियों से शांत और बहादुर बने रहने के लिए कहा. इस पर्चे में कहा गया कि आप अपनी आज़ादी पर खुश होइए और उसे मज़बूत करिए. 18 दिसंबर की शाम तक राजधानी पणजी को चारों तरफ़ से घेर लिया गया था. स्थानीय लोग भारतीय सैनिकों की मदद कर रहे थे और उन जगहों के बारे में उन्हें बता रहे थे जहाँ पुर्तगालियों ने बारूदी सुरंगें बिछा रखी थीं.”

ऑपरेशन शुरू होने के 36 घंटों के अंदर पुर्तगाली गवर्नर जनरल ने बिना शर्त सरेंडर करने के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिए थे.

जब पंजाब रेजीमेंट के जवान पणजी में घुसे तो उन्होंने पुर्तगाली अफ़सरों और उनके सैनिकों को केवल अंडरवियर पहने हुए पाया.

जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें बताया गया था कि भारतीय सैनिक इतने निर्दयी हैं कि अगर वो किसी पुर्तगाली सैनिक को उसकी वर्दी से पहचानेंगे तो उसे उसी समय गोली मार देंगे.

ब्रिगेडियर सगत सिंह की अहम भूमिका

ब्रिगेडियर सगत सिंह के नेतृत्व में 50वीं पैराशूट ब्रिगेड ने ज़िम्मेदारी से कहीं बढ़कर काम किया और इतनी तेज़ी से पणजी पहुँचे कि सब दंग रह गए.

ब्रिगेडियर सगत सिंह की जीवनी लिखने वाले जनरल वीके सिंह बताते हैं, “चौबीस घंटे के अंदर ही उनकी बटालियन पणजी पहुँच गई. वहाँ सगत सिंह ने अपनी बटालियन को ये कहकर रोका कि रात हो गई है. पणजी आबादी वाला इलाका है. रात में हमला करने से आम नागरिक मारे जा सकते थे. सुबह उन्होंने नदी पार की. पुर्तगाली सरकार ने भारतीय सैनिकों को रोकने के लिए पुल तोड़ दिए थे. सगत सिंह के सैनिकों ने एक तरह से तैरकर नदी पार की.”

जून 1962 आते-आते भारतीय सैनिक गोवा में अपना ऑपरेशन पूरा करके वापस आगरा पहुँच चुके थे.

आगरा के मशहूर क्लार्क्स शीराज़ होटल में एक दिलचस्प घटना घटी. मेजर जनरल वीके सिंह बताते हैं, “ब्रिगेडियर सगत सिंह वहाँ सिविल ड्रेस में गए थे. वहाँ कुछ अमेरिकी टूरिस्ट भी आए हुए थे जो उन्हें बहुत ध्यान से देख रहे थे. कुछ देर बाद उनमें से एक शख़्स ने उनसे आकर पूछा क्या आप ब्रिगेडियर सगत सिंह हैं?”

“उन्होंने कहा आप ये क्यों पूछ रहे हैं? उस शख़्स ने कहा हम अभी पुर्तगाल से आ रहे हैं. वहाँ जगह जगह आपके पोस्टर लगे हुए हैं, उन पर लिखा है कि जो आपको पकड़ कर लाएगा उसे दस हज़ार डॉलर मिलेंगे. ब्रिगेडियर सगत सिंह ने हँसते हुए कहा, अगर आप कहें तो मैं आपके साथ चलूँ. अमेरिकी पर्यटक ने हँसते हुए कहा, अब हम पुर्तगाल वापस नहीं जा रहे हैं.”

पुर्तगाल ने गोवा पर कब्ज़े की ख़बर सेंसर की

उधर पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में सेंसर के अंतर्गत काम कर रही प्रेस वहाँ के लोगों को गोवा में पुर्तगाली सैनिकों के कड़े प्रतिरोध और भारतीय सैनिकों के हाथ से लड़ने की ख़बरें दे रही थी.

ये झूठी ख़बर भी छापी जा रही थी कि पुर्तगाली सैनिकों ने भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया है.

पुर्तगाल के लोगों को ये बताया ही नहीं गया कि गोवा में पुर्तगाल के बहुत कम सैनिक मौजूद हैं. उनके पास न तो लड़ने का अनुभव है और न ही उन्हें इस तरह के ऑपरेशन के लिए प्रशिक्षित किया गया है.

अगर वो सांकेतिक विरोध करना भी चाहें तो इसके लिए उनके पास पर्याप्त साधन नहीं थे. जब पुर्तगाल ने ये मामला सुरक्षा परिषद में उठाया उस दिन तक भी पुर्तगाली प्रेस बढ़ा-चढ़ा कर दावा कर रही थी कि भारत के अब तक 1500 सैनिक मर चुके हैं.

18 दिसंबर के पूरे दिन गोवा रेडियो युद्ध संगीत बजाता रहा लेकिन उसने भारतीय सैनिकों के गोवा में घुसने की कोई ख़बर नहीं दी.

जैसे ही भारतीय विमानों ने डेबोलिम हवाई अड्डे पर बमबारी शुरू की स्कूल गए बच्चों से कहा गया कि वो अपने घर लौट जाएं.

डेबोलिम हवाई पट्टी पर हंटर विमानों से बमबारी

18 दिसंबर को सुबह सात बजे स्क्वार्डन लीडर जयवंत सिंह के नेतृत्व में छह हंटर विमानों ने पुणे के वायु सेना ठिकाने से उड़ान भरी. उन्होंने बंबोलिम स्थित रेडियो स्टेशन पर रॉकेट और गन कैनन से हमला किया और उसे 10 मिनट में बरबाद कर दिया.

गोवा का बाहरी दुनिया से संपर्क टूट गया. गोवा रेडियो का वो मशहूर अनाउंसमेंट हमेशा के लिए बंद हो गया, ‘ये पुर्तगाल है. आप सुन रहे हैं रेडियो गोवा.’

उसी समय पूना से 12 कैनबरा और 4 हंटर विमानों ने गोवा के लिए उड़ान भरी. उन्होंने गोवा के डेबोलिम रन-वे पर 1000 पाउंड के 63 बम गिराए.

वाल्मीकि फ़ेलेरो लिखते हैं, “पहले राउंड में 63 पाउंड बम गिराने के बावजूद भारतीय वायु सैनिक चैन से नहीं बैठे. करीब आधे घंटे बाद उन्होंने वहाँ फिर हमला किया और इस बार कुल 48 हज़ार पाउंड के बम गिराए.”

“इसके आधे घंटे बाद फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट विवियन गुडविन को डेबोलिम हवाई पट्टी पर हुई बमबारी से हुए नुकसान की तस्वीरें लेने के लिए भेजा गया. तस्वीरों से पता चला कि हवाई पट्टी को कोई ख़ास नुकसान नहीं पहुंचा है. इसके बाद 11 बजकर 40 मिनट पर डेबोलिम पर तीसरा हमला किया गया.”

महिलाओं और बच्चों को लिस्बन भेजा गया

भारतीय वायु सेना की ज़बरदस्त बमबारी के बावजूद डेबोलिम हवाई पट्टी पर मात्र कुछ गड्ढे ही बन पाए. गोवा में मौजूद पुर्तगाली अफ़सरों ने तय किया कि वो अपने बीवी-बच्चों को हवाई जहाज़ से पुर्तगाल भेजेंगे.

उस समय डेबोलिम में सिर्फ़ दो विमान उपलब्ध थे, जैसे ही अंधेरा हुआ डेबोलिम हवाई पट्टी पर बने गड्ढों की जल्दी-जल्दी मरम्मत की गई. चारों ओर से घिर जाने के बावजूद गवर्नर जनरल सिल्वा ने इन विमानों के उड़ने की अनुमति दे दी.

वाल्मीकि फ़लेरो लिखते हैं, “दो विमानों में पुर्तगाली अफ़सरों के बीवी-बच्चों को भरा गया और ज़रूरी सरकारी दस्तावेज़ भी रखे गए. इन विमानों ने घुप्प अँधेरे में बहुत बड़ा जोखिम उठाते हुए सिर्फ़ 700 मीटर लंबे रन-वे से बिना बत्तियाँ जलाए टेक ऑफ़ किया.”

“इन विमानों पर समुद्र में तैनात भारतीय युद्धपोतों ने गोलियाँ भी चलाईं लेकिन वो बच निकलने में कामयाब हो गए, बहुत नीचे उड़ते हुए लंबा रास्ता तय करके पाकिस्तान के कराची हवाई अड्डे पर उतरे.”

इस बीच, गोवा के गवर्नर जनरल मेजर जनरल सिल्वा वास्को डि गामा पहुँच गए थे.

वहाँ सबसे पहले मेजर बिल कार्वेलो के नेतृत्व में सिख रेजीमेंट के जवान सबसे पहले पहुँचे.

ब्रिगेडियर रवि मेहता ने वाल्मीकि फ़लेरो को एक इंटरव्यू में बताया था, “मेजर बिल कार्वेलो, कैप्टन आरएस बाली और मैं उस इमारत की गेट पर पहुँचे जहाँ जनरल सिल्वा मौजूद थे. हम मेस में उस मेज़ पर पहुंचे जहाँ जनरल सिल्वा बैठे हुए थे. उनको तब तक पता चल चुका था कि भारतीय सेना ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया है और उनके पास विरोध करने का कोई विकल्प नहीं है. बिल ने गवर्नर को सेल्यूट किया गवर्नर ने खड़े होकर उस सेल्यूट का जवाब दिया.”

बिल ने कहा कि आप अपने सैनिकों को हथियार डालने और बैरक के अंदर चले जाने का आदेश दीजिए.

उन्होंने गवर्नर से कहा कि वो भी अपने निवास स्थान चले जाएँ जहाँ उन पर नज़र रखने के लिए भारतीय सेना के कुछ जवानों को तैनात कर दिया गया.

कमांडिंग अफ़सर लेफ़्टिनेंट कर्नल नंदा ने तय किया कि औपचारिक सरेंडर समारोह रात में होगा.

जनरल सिल्वा ने आत्मसमर्पण किया

सरेंडर समारोह 19 दिसंबर, 1961 की रात 9 बज कर 15 मिनट पर हुआ. उस समय वहाँ बहुत कम लोग मौजूद थे. उनमें से एक थे डॉक्टर सुरेश कानेकर जिन्होंने गोवा की आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था.

बाद में उन्होंने सन 2011 में प्रकाशित अपनी किताब ‘गोवाज़ लिबरेशन एंड देयर आफ़्टर’ में लिखा, “सरेंडर समारोह खुले मैदान में हुआ था. ब्रिगेडियर ढिल्लों जीप में बैठे हुए थे. उन्होंने वहाँ मौजूद कारों को अंग्रेज़ी के अक्षर ‘सी’ के फॉर्मेशन में खड़ा किया. उनकी हेडलाइट्स ऑन थीं और उस जगह पर केंद्रित थीं जहां जनरल सिल्वा आत्मसमर्पण करने वाले थे.”

“करीब 8 बजकर 45 मिनट पर जनरल सिल्वा को वहाँ लाया गया. उनके साथ उनके चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट कर्नल मारके डे आँद्रेद भी थे. उनको करीब आधे घंटे तक इंतज़ार कराया गया. उनके दोनों तरफ़ कतार बाँधे भारतीय सैनिक खड़े थे.”

डॉक्टर कानेकर आगे लिखते हैं, “जब ब्रिगेडियर ढिल्लों को बताया गया कि सारी व्यवस्था हो चुकी है तब वो अपनी जीप से उतरे और जनरल सिल्वा के सामने खड़े हो गए. ब्रिगेडियर ढिल्लों को संबोधित करते हुए लेफ़्टिनेंट कर्नल नंदा ने कहा कि गोवा, दमन और दीव के गवर्नर जनरल उनके सामने सरेंडर कर रहे हैं.”

“नंदा के आदेश देने पर जनरल सिल्वा आगे बढ़े. उन्होंने ढिल्लों को सेल्यूट किया. ढिल्लों ने उस सेल्यूट का जवाब नहीं दिया. इससे मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि सिल्वा मेजर जनरल थे और ओहदे में ढिल्लों से ऊँचे पद पर थे. उन्होंने ढिल्लों को सरेंडर के कागज़ दिए.”

इसके बाद ढिल्लों अपनी जीप पर वापस चले गए और सिल्वा को उस भवन में ले जाया गया जहाँ उन्हें हिरासत में रखा गया था. इस पूरे समारोह के दौरान न तो सिल्वा ने एक शब्द कहा और न ही ढिल्लों ने.

भारतीय सेना के कमांडर जनरल कैंडेथ इसलिए सरेंडर नहीं ले सके क्योंकि वो वास्को डि गामा में मौजूद ही नहीं थे. सरेंडर के समय कैंडेथ को पता ही नहीं था कि भारतीय सेना वास्को डि गोमा तक पहुंच गई है. उनको इस बारे में पूरी जानकारी रात 11 बजे टेलीफ़ोन से मिली.

इस सरेंडर समारोह की कोई भी फ़ोटो मौजूद नहीं है. डाक्टर सुरेश कानेकर लिखते हैं, “लेफ़्टिनेंट कर्नल नंदा ने इस समारोह की तस्वीर खींचने के लिए एक फ़ोटोग्राफ़र की व्यवस्था की थी लेकिन फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे में फ़्लैश नहीं था. नंदा ने फ़ोटोग्राफ़र को ब्रीफ़ किया था कि वो जब इशारा करेंगे तब उसे तस्वीर लेनी होगी लेकिन आखिरी समय पर नंदा इशारा देना भूल गए इसलिए फ़ोटोग्राफ़र ने तस्वीर नहीं खींची.”

पुर्तगाली जनरल से मुलाक़ात

कुछ दिनों बाद दक्षिणी कमान के प्रमुख जनरल जेएन चौधरी पुर्तगाली जनरल सिल्वा से मिलने उनकी जेल की कोठरी में गए. जनरल सिल्वा के एक साथी जनरल कार्लोस अज़ेरेडो ने अपनी किताब ‘वर्क एंड डेज़ ऑफ़ अ सोल्जर ऑफ़ द एम्पायर’ में लिखा, “जनरल चौधरी ने सिल्वा की कोठरी में अकेले दाख़िल होकर उनका अभिवादन किया. जनरल सिल्वा खड़े होकर उन्हें सेल्यूट करना चाहते थे लेकिन चौधरी ने उनके कंधे थपथपाते हुए उन्हें खड़े नहीं होने दिया. फिर जनरल चौधरी एक कुर्सी खींच कर जनरल सिल्वा के सामने बैठ गए.”

उन्होंने उससे कहा कि अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो कमांडर बिल कार्वेलो से कह सकते हैं. जनरल चौधरी ने सिल्वा को आश्वस्त किया कि उनकी पत्नी सुरक्षित हैं और भारत सरकार जल्द ही उन्हें लिस्बन भेजने वाली है.

इसके बाद भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल पीएन थापर भी सिल्वा से मिलने गए. इसके बाद सिल्वा को एक बेहतर मकान में शिफ़्ट कर दिया गया.

भारतीय सेना के एक मेजर सेज़ार लोबो जनरल सिल्वा की देखरेख में लगाया गया, लोबो धाराप्रवाह पुर्तगाली बोल सकते थे.

पुर्तगाल के 3307 सैनिक युद्धबंदी बनाए गए

जनरल चौधरी के वादे के बावजूद सिल्वा की पत्नी फ़र्नांडा सिल्वा के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया.

वाल्मीकि फ़लेरो लिखते हैं, “उनको ज़बर्दस्ती उनके डोना पौला वाले सरकारी निवास से बाहर किया गया. उनको पणजी की सड़कों पर भटकते हुए देखा गया. पूर्व मुख्य सचिव अबेल कोलासो ने उन्हें अपने सरकारी घर में शरण दी.”

“जब ये मामला संसद में उठा तो नेहरू ने कोलासो की तारीफ़ करते हुए कहा कि उन्होंने एक शरीफ़ इंसान की तरह परेशानी में पड़ी महिला के साथ व्यवहार किया है. 29 दिसंबर, 1961 को फ़र्नांडा सिल्वा को भारतीय वायुसेना के एक विमान से बंबई ले जाया गया जहाँ से उन्होंने लिस्बन के लिए उड़ान भरी.”

उनके पति जनरल सिल्वा पाँच महीने बाद अपने देश जा सके. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 22 जवान मारे गए जबकि 54 अन्य जवान घायल हुए. अर्जुन सुब्रमण्यम अपनी किताब ‘इंडियाज़ वॉर्स 1947-1971 में लिखते हैं कि इस अभियान में पुर्तागाली सेना के 30 सैनिक मरे और 57 घायल हुए.

वाल्मीकि फ़लेरो लिखते हैं, “लिस्बन पहुँचते ही पुर्तगाली युद्धबंदियों को साधारण अपराधियों की तरह उन्हें बंदूक की नोक पर सैनिक पुलिस ने हिरासत में ले लिया. उनके परिवार वाले उनसे मिलने हवाईअड्डे आए हुए थे लेकिन उन्हें उनसे मिलने नहीं दिया गया और एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. उनको डरपोक और देशद्रोही कहकर उनकी बेइज़्ज़ती की गई.”

करीब एक दर्जन अफ़सरों को जिसमें गवर्नर जनरल सिल्वा भी शामिल थे, सेना से निष्कासित कर दिया गया.

यही नहीं उनके जीवन भर किसी सरकारी पद पर रहने पर भी रोक लगा दी गई. जब 1974 में सत्ता परिवर्तन हुआ तब जाकर इन बर्खास्त किए गए लोगों की बहाली हुई और मेजर जनरल सिल्वा को सेना में उनकी पुरानी रैंक पर फिर से बहाल किया गया.

भारत ने गोवा में रहने वाले सभी लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की, भारत ने उनके सामने पुर्तगाली नागरिकता छोड़ने की शर्त नहीं रखी.

भारत के कानून में दोहरी नागरिकता का प्रावधान नहीं है लेकिन 1961 से पहले गोवा में रहने वाले लोग इसका अपवाद हैं.

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