DMT : मुज़फ़्फ़रनगर : (18 सितंबर 2023) : –
जले हुए घरों से उठता धुआं, सिसकती महिलाएँ, कैंपों में पड़े बेबस-बदहवास लोग, हर दिल में दहशत-हर आंख में खौफ़.
ये मिली-जुली आबादी वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर और आसपास के इलाक़ों में भड़की सांप्रदायिक हिंसा का मंज़र था.
2002 के गुजरात दंगों के बाद देश की इस सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा में अनेक लोग मारे गए, हजारों बेघर हुए और सदियों से क़ायम आपसी भरोसा टूट गया.
लेकिन ये हिंसा अचानक नहीं हुई.
2012 में उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मिली-जुली आबादी वाले ज़िलों में हो रही छोटी-बड़ी घटनाओं से सांप्रदायिक तनाव पनप रहा था.
सचिन और गौरव नाम के दो हिंदू जाट युवकों ने शाहनवाज़ नाम के एक मुसलमान युवक की हत्या कर दी.
मौक़े पर मौजूद भीड़ ने सचिन और गौरव को वहीं पीट-पीट कर मार दिया.
मीडिया के एक वर्ग ने इस घटना को ‘हिंदू बहन की इज्जत बचाने के लिए भाइयों के जान क़ुर्बान करने’ की कहानी के रूप में पेश किया.
सचिन और गौरव की हत्या की एफ़आईआर में दर्ज है कि ये घटना ‘मोटरसाइकिल टकराने से हुई नोकझोंक’ से शुरू हुई थी.
व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर सचिन और गौरव की ‘पीट-पीट कर हत्या’ के फ़र्ज़ी वीडियो लोगों को भड़का रहे थे.
शाहनवाज़ की हत्या के आरोप में सचिन और गौरव के परिजनों पर हुई एफ़आईआर ने इस आक्रोश को और बढ़ा दिया.
समाजवादी पार्टी की सरकार के रातोंरात ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया, इसे जाट समुदाय ने ‘एकतरफ़ा कार्रवाई’ के रूप में देखा.
जाट समुदाय एकजुट होने लगा. कई महापंचायतें हुई. तीखी बयानबाज़ियां हो रहीं थीं. उत्तेजक नारे लगाए जा रहे थे. धार्मिक उन्माद बढ़ रहा था. माहौल गर्म था.
सात सितंबर को नगला मंदौड़ गांव में हुई महापंचायत के बाद हिंसा भड़क उठी. कई गांवों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सीधा टकराव हुआ.
अफवाहों, अविश्वास और आक्रोश ने इस टकराव को बड़े सांप्रदायिक दंगे में बदल दिया.
शाम होते-होते मुज़फ़्फ़रनगर सुलग उठा. हिंसा उन गांवों तक फैल गई जहां सदियों से हिंदू-मुसलमान मिल-जुल कर रह रहे थे.
उत्तर प्रदेश सरकार को हालात नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल बुलाने पड़े.
दंगे की आग जब ठंडी हुई, 64 लोग मारे जा चुके थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे. मौतें और भी हुईं लेकिन वो रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं हैं.
हज़ारों मुसलमान, अपना सब कुछ छोड़कर जान बचाने के लिए भागे, इनमें से अधिकतर फिर कभी अपने गांव नहीं लौट सके.
रातोरात मुस्लिम बहुल बस्तियों में 60 से अधिक राहत कैम्प खड़े हो गए. अगले कई महीनों तक लोग सर्द मौसम में तंबुओं में रहे. कैम्पों में जन्म ले रहे बच्चों की मौतें सुर्ख़ियां बननें लगी.
अमानवीय हालात में रहने को मजबूर लोगों की मौतें कभी आंकड़ों में शामिल नहीं हो सकीं. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया कि क़रीब सौ जानें (जिनमें बच्चे भी शामिल थे) कैम्पों में ख़राब हालात की वजह चली गईं.
मुज़फ़्फरनगर के पलड़ा गांव से कुटबा-कुटबी गांव की दूरी महज़ पांच किलोमीटर है, लेकिन शमशाद और उन जैसे सैकड़ों लोगों के लिए ये फासला तय करना आसान नहीं.
शमशाद के पिता, दादा और उनसे पिछली कई पीढ़ियां मुज़फ्फरनगर के कुटबा गांव में पैदा हुईं और यहीं दफन हो गईं. लेकिन शायद शमशाद और गांव छोड़कर गए उन जैसे मुसलमानों को अब अपने पुश्तैनी गांव में क़ब्र नसीब ना हो.
केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का गांव कुटबा भी प्रभावित गांवों में से एक है. दंगों से पहले यहां क़रीब ढाई हज़ार मुसलमान रहते थे, अब यहां सिर्फ वीरान मस्जिदें और ईदगाह ही कभी यहां आबाद रहे मुसलमानों की आख़िरी निशानी हैं.
कुटबा गांव की शुरुआत क़ब्रिस्तान और उससे सटी ईदगाह से होती है. अब क़ब्रिस्तान में उग आई ऊंची घास के बीच अपनों की क़ब्र खोजना आसान नहीं है. ईदगाह में अब गोबर और कूड़े का ढेर है, दीवारों पर काई है और जगह-जगह झाड़-झंखाड़ उग आए हैं.
क़ब्रिस्तान में दाख़िल होते ही उदासी शमशाद को घेर लेती है. झाड़ियों के बीच छुपी क़ब्रों की तरफ़ वो इशारा करते हुए कहते हैं, “उधर मेरे अब्बा और दादा दफ़न है. पहले यहां साफ़ सफ़ाई रहती थी, अब बस कूड़े के ढेर हैं.”
ईदगाह को दिखाते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए. शमशाद कहते हैं, “पहले यहां ईद होती थी, ख़ुशी होती थी. अब सब वीरान है.”
यहां आठ मुसलमानों को मार दिया गया था और उनके घरों में आग लगा दी गई थी. दंगे के दौरान यहां से भागे लोग फिर नहीं लौटे.
अधिकतर ने अपने घर बेच दिए. लेकिन मौसम जैसे कुछ लोग हैं जो गांव में अपने घर को पुश्तैनी निशानी के रूप में बचाये रखना चाहते हैं.
अपने वीरान पड़े घर में दाखिल होते हुए मौसम उदास हो जाते हैं. कभी उनके पड़ोसी रहे लोग हालचाल पूछते हैं तो वो मायूस होकर कहते हैं, “सब ठीक है.”
लेकिन ये कहने की बात है, उनकी जिंदगी गांव से उजड़ने के बाद पटरी पर नहीं लौट सकी और ना ही कभी कुछ ठीक हो सका.
मौसम कहते हैं, “हम यहां लोहे का काम करते थे, अच्छी रोजी रोटी चल रही थी. दस साल बाद भी हमारा काम पहले जैसा नहीं हो सका है.”
क्या वो इस घर को बेचेंगे, इस सवाल पर एक लंबी खामोशी के
बाद वो कहते हैं, “पुरखों की ज़मीन है, नहीं बेचेंगे, ऐसे ही रहेगी.”
कुटबा गांव में जगह- जगह लोग ताश खेल रहे हैं. चौपालों पर भीड़ थी. गांव से उजड़े हुए कुछ मुसलमान जब मस्जिद की तरफ आगे बढ़े तो सबने उनका हालचाल पूछा. मैं अपने साथ चल रहे शमशाद से कहता हूं, क्या कभी गांव वापस आने का सोचा है. वो बस इतना ही कहते हैं, “उस ख़ौफ को भूलना आसान नहीं है.”
जो लौटा उसका क्या हाल है?
यहां से करीब 25 किलोमीटर दूर शामली के लिसाढ़ गांव में दंगों से पहले क़रीब तीन हज़ार मुसलमान रहते थे. अब यहां सिर्फ़ एक ही परिवार बचा है. वो अभी अब गांव छोड़ने का सोचते हैं.
इसरार सैफ़ी का परिवार लिसाढ़ का अकेला मुसलमान परिवार है. वो लोहे का काम करते हैं. गांव के बीच में उनका घर है. उनके सगे रिश्तेदारों के घर अब वीरान पड़े हैं.
गांव में उनके परिवार का जीवन सीमित है. छोटा भाई और बहन पढ़ाई कर रहे हैं. आसपास के लोगों से उनकी ज़रूरत भर ही बात होती है. उनके चाचा के एक खाली घर में एक हिंदू पड़ोसी ने अपनी भैंसे बांध रखी है.
इसरार के परिवार ने भी पलायन किया था, लेकिन वो फिर लौट आये. उनके पास खेती की कुछ ज़मीन भी है. इसरार कहते हैं, “दंगों के बाद जिसने भी घर ज़मीन बेची, बहुत कम क़ीमत मिली. हमने अपनी पुश्तैनी ज़मीन को बचाए रखा है.”
उन्हें गांव में अब कैसा महसूस होता है? वो कहते हैं, “महसूस तो कुछ होता नहीं, ना ही अब कोई डर है. बस अपनों की याद आती है. पूरा ख़ानदान यहीं था. अब कोई नहीं है. कई बार बहुत अकेलापन महसूस होता है.”
तो क्या वो भी एक दिन गांव से चले जाएंगे? इसरार कहते हैं, “जाना तो पड़ेगा, एक दिन तो गांव छोड़ना ही है, लेकिन मैं किसी के दबाव या डर में गांव नहीं छोड़ूंगा, जब भी छोड़ूंगा अपनी मर्ज़ी से छोड़ूंगा.”
लिसाढ़ गांव में तीन बड़ी मस्जिदें थीं. एक में ताला लगा है. एक के दरवाज़े को तोड़ दिया गया है. मस्जिद के मिंबर के पास शराब की बोतलें पड़ीं थीं. यहां की हालत देखकर लगता है कि अब यहां लोग बैठकर शराब पीते हैं.
तीसरी मस्जिद के चारों तरफ़ अब हिंदू आबादी है. यहां के मुसलमानों के अधिकतर मकान ख़रीद लिए गए हैं. ये मस्जिद बिलकुल साफ़ थी. एक मुसलमान का घर ख़रीदने वाला एक हिंदू परिवार इसकी साफ़ सफ़ाई करता है.
मस्जिद की सफ़ाई करने वाली हिंदू महिला कहती हैं, “पवित्र जगह है ये, गंदी रहेगी तो बुरा लगेगा. मेरी बेटियां यहां झाड़ू लगा देती हैं.”
क्या कभी लौट सकेंगे विस्थापित लोग?
मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के दौरान क़रीब चालीस हज़ार लोगों ने पलायन किया था. ये सब हिंदू बहुल गांवों में बसे मुसलमान थे.
दंगों के समय कुछ हिंदू परिवारों ने भी पलायन किया था लेकिन ये कुछ दिनों के भीतर ही अपने घरों को लौट गए.
हिंदू बहुल गांवों से उजड़े लोगों ने अब अपनी बस्तियां बसा ली हैं.
लिसाढ़ छोड़कर आए अब्दुल बासित अब कांधला में एक ऐसी ही बस्ती में रहते हैं. दंगों के दस साल बाद भी उनकी ज़िंदगी पटरी पर नहीं आ सकी है.
अब्दुल बासित लिसाढ़ गांव की मस्जिद में इमाम थे. गांव में उनकी इज़्ज़त थी. काम धंधा सही चल रहा था.
सरकार ने उजड़े हुए परिवार के पुनर्वास के लिए पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद की थी. पलायन करने वाले अधिकतर लोगों ने इस पैसे से नई जगह ज़मीन ख़रीदी और घर बनाये.