बीजेपी क्या मंडल और कमंडल को साथ लाने में कामयाब हो गई है?

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DMT : नई दिल्ली : (15 दिसंबर 2023) : – हाल में ही संपन्न हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में से तीन में बीजेपी ने सभी अटकलों को ख़ारिज करते हुए जीत दर्ज की.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी ने बहुमत से ज़्यादा सीटें हासिल की है.

इन तीनों राज्यों के चुनाव में कांग्रेस ने बिहार में हुए जातीय सर्वेक्षण के बाद इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया.

विपक्षी पार्टियों का दावा था कि जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी को नुक़सान हो सकता है.

बीजेपी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाक़ों में भी इस बार अधिकांश सीटें जीतीं, वहीं मध्य प्रदेश में भी पार्टी को अच्छी-खासी संख्या में ओबीसी समुदाय का वोट मिला.

नतीजों के बाद सवाल ये उठता है कि क्या बीजेपी ने क्या हिंदुत्व के मुद्दे के साथ-साथ विपक्ष को जातिगत राजनीति में भी पीछे छोड़ दिया है?

क्या विधानसभा चुनाव के नतीजे के आधार पर बीजेपी लोकसभा चुनाव में भी बढ़त हासिल कर पाएगी या विपक्ष बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती पेश करेगा और ओबीसी वोट लोकसभा चुनाव के दौरान अलग तरीक़े से काम करेंगे?

‘मंडल’ ने कैसी बदली देश की सियासत

‘जब तक समाज में विषमता है, तब तक समाजिक न्याय की आवश्यकता है’.

ये शब्द पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की ज़रूरत ज़ाहिर करने के लिए कहे थे.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अपनी किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में लिखती हैं, “अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों से ये ज़ाहिर होता है कि कैसे मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद इसने देश के राजनीतिक एजेंडा को बदल दिया. जाति समाज के एक वर्ग से अधिक राजनीतिक वर्ग के तौर पर देखी जाने लगी.”

मंडल आयोग ने क्षेत्रीय पार्टियों और जातिगत पहचान से जुड़ी राजनीति को भी पंख दिए. उत्तर प्रदेश और बिहार में आरजेडी, समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड जैसी पार्टियों का क़द बढ़ा.

साथ ही छोटे-छोटे जाति आधारित समूह भी पनपने लगे. जैसे अकेले यूपी में ही राजभर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी, कुर्मी समुदाय की बात करने वाले अपना दल और निषाद समुदाय की आवाज़ उठाने वाली पार्टी का जन्म हुआ.

ये छोटी पार्टियाँ मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए अहमियत रखने लगी.

राजनीति की ये धारा 1990 के दशक में वीपी सिंह की सरकार में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की बात करने वाले बीपी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद शुरू हुई थी.

ये वो समय था जब भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर अभियान पर ज़ोर दे रही थी, इसे कमंडल की राजनीति कहा गया.

वीपी सिंह के बाद आई हर सरकार ने आरक्षण का समर्थन किया .

भारतीय जनता पार्टी भी हिंदुत्व की राजनीति को धार तो देती रही, लेकिन आरक्षण के मुद्दे पर पार्टी की राय अन्य पार्टियों के जैसी ही थी.

मुद्दा क्यों हुआ बेअसर

साल 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार ने बीपी मंडल की अगुवाई में आयोग का गठन किया. लेकिन इसकी सिफ़ारिशों को 10 साल बाद वीपी सिंह ने लागू करवाया.

ये कहा जाता है कि वीपी सिंह ने चुनाव में ओबीसी वोटबैंक को अपनी ओर लाने के लिए इस आयोग की सिफारिशें लागू की.

ये वह समय था जब बीजेपी वीपी सिंह की सरकार को समर्थन देने के साथ ही राम मंदिर अभियान पर भी ज़ोर दे रही थी.

नीरजा चौधरी अपनी किताब में लिखती हैं कि ओबीसी समुदाय ने आरक्षण को लागू करने वाले वीपी सिंह को अपने नेता के तौर पर स्वीकार नहीं किया, बल्कि मतदाताओं का झुकाव अपनी जाति से आने वाले नेताओं की तरफ़ ज़्यादा दिखा.

लेकिन वीपी सिंह के फ़ैसले ने देश में नई ओबीसी लीडरशिप ज़रूर खड़ी कर दी, जो अगले दो दशक तक भारत की सत्ता का अहम अंग बने रहे.

मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव, उमा भारती, कल्याण सिंह, शिवराज सिंह चौहान, अशोक गहलोत और अन्य कई नेताओं ने यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकार चलाई.

धीरे-धीरे बीजेपी में भी पीढ़ी का परिवर्तन हुआ. साल 2014 में ओबीसी समुदाय से आने वाले बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने.

हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी इसके बाद चुनाव-दर-चुनाव बढ़त ही हासिल करती रही.

2019 में फिर से केंद्र में मोदी सरकार बनी और इस दौरान कई राज्यों में भी पार्टी ने भारी बहुमत के साथ सत्ता पाई.

इसी साल बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के आँकड़े जारी किए गए और अब अगले महीने 22 तारीख को अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है.

बिहार के सर्वे में सबसे अधिक 36.1 फ़ीसदी आबादी अत्यंत पिछड़ा वर्ग की बताई गई. वहीं, कुल हिंदुओं की संख्या 82 फ़ीसदी है.

इसके बाद कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने देशभर में जातिगत गणना का मुद्दा उठाया.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस सर्वे का समर्थन करते हुए भारत के जातिगत आँकड़े जानने की ज़रूरत बताई. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का प्रण है जितनी आबादी, उतना हक़.

ऐसा कहा जाने लगा कि बिहार में जातिगत सर्वे के आँकड़ों के सामने आने के बाद बीजेपी को चुनाव में इसका नुक़सान हो सकता है.

जानकार इसे मंडल बनाम कमंडल राजनीति के दौर की वापसी के तौर पर देखने लगे.

हालांकि, लोकसभा चुनाव का सेमीफ़ाइनल कहे जा रहे पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में ये मुद्दा बेअसर दिखा.

उल्टे अपने चुनावी प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये कहा कि देश में सिर्फ़ चार जातियाँ हैं– ग़रीब, किसान, महिला और युवा.

उन्होंने कहा कि जाति सर्वेक्षण के ज़रिए देश को बाँटने की कोशिश हो रही है.

इसके बाद जब बीजेपी ने इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्रियों का चुनाव किया तो इसे 2024 लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष के जातीय मुद्दे को साधने की कोशिश के तौर पर देखा गया.

शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को चुनने की बजाय पार्टी ने मोहन यादव, भजन लाल शर्मा और विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री के पद दिए हैं.

हालाँकि, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता कपिश श्रीवास्तव की नज़र में मुख्यमंत्रियों के चुनाव के पीछे वजह जातीय समीकरण को साधना नहीं बल्कि पार्टी में मोदी की हाँ में हाँ मिलाने वालों को अहम भूमिका में लाना है.

मध्य प्रदेश की सीमा उत्तर प्रदेश से लगती है. ऐसे में मोहन यादव को एमपी का सीएम बना देने से बीजेपी यूपी और बिहार के यादवों का ज़्यादा समर्थन लेने में कामयाब हो सकेगी?

इसपर कपिश श्रीवास्तव कहते हैं, “उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को चुनकर जिस तरह से मोदी-शाह ने अपने हाथ जला लिए, इसलिए इन्होंने तीनों जगहों पर बैकबेंचर्स को फ़ॉरवर्ड किया है, ताकि 2024 से पहले वहाँ पर हाँ में हाँ मिलाने वाले की नियुक्ति हो सके. इन्होंने अपने सक्षम नेतृत्व को बैकबेंचर बना दिया है.”

ओबीसी उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का अहम हिस्सा रहे हैं.

लेकिन बीजेपी ने ग़ैर-यादव ओबीसी के बीच एक मज़बूत आधार बनाकर समाजवादी पार्टी और आरजेडी के यादव-मुस्लिम कॉम्बिनेशन को पीछे छोड़ दिया है. साल 2019 में बीजेपी की जीत के पीछे यह वर्ग प्रमुख कारण रहा.

मध्य प्रदेश में 50 फ़ीसदी ओबीसी मतदाता हैं. मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत में ओबीसी समुदाय के वोटरों की बड़ी भूमिका रही है.

पार्टी ने यहाँ ओबीसी समुदाय के मोहन यादव को ही सीएम बनाया, लेकिन साथ में ब्राह्मण राजेंद्र शुक्ला और अनुसूचित जाति से आने वाले जगदीश देवड़ा को डिप्टी सीएम बना दिया.

छत्तीसगढ़ में आदिवासी इलाक़ों में मिली बढ़त को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने इसी समुदाय के विष्णुदेव साय को सीएम पद दिया है.

इसका फ़ायदा पार्टी को ओडिशा और झारखंड में भी हो सकता है, जहाँ अच्छी संख्या में आदिवासी हैं और लोकसभा चुनाव के बाद यहाँ भी विधानसभा चुनाव होने हैं.

राजस्थान में भी पार्टी ने ब्राह्मण सीएम के साथ राजपूत और दलित समुदाय से आने वाले दो डिप्टी सीएम भी नियुक्त कर दिए हैं.

लेकिन क्या इन चेहरों के सहारे बीजेपी यादव-मुस्लिम समुदाय के बीच मज़बूत समर्थन रखने वाली और मंडल आयोग का समर्थन करने वाली समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसे दलों को क्या पीछे छोड़ पाएगी?

कपिश श्रीवास्तव कहते हैं, “बिल्कुल नहीं. अगर इन्हें वाकई ओबीसी या दलित समाज के लिए कुछ करना होता तो आप सिर्फ़ एक मुख्यमंत्री बैठाकर ये नहीं करते. आप जातीय जनगणना कराते.”

लेकिन ओबीसी समुदाय के बीच बीजेपी के लगातार बढ़ते जनाधार के पीछे की वजह वरिष्ठ आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी पीएम के इसी समुदाय से होने को मानते हैं. वह कहते हैं कि इससे बीजेपी को फ़ायदा पहुँच रहा है.

वे कहते हैं, “मंडल समर्थक पार्टियों के बीच मतभेद हुए. इस मतभेद की वजह पिछड़ों की एकता ख़त्म हुई. उसको भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तरफ़ जोड़ा. उत्तर प्रदेश में, बिहार में ओबीसी वोटरों को भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तरफ़ किया. पीएम मोदी अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी उठाती है.”

शिवानंद तिवारी कहते हैं कि हिंदुत्व का एजेंडा और राष्ट्रवाद को बीजेपी ने देश का नैरेटिव बना दिया है. हालाँकि, इसको काउंटर किस तरह किया जाए, सवाल ये है.

नेतृत्व परिवर्तन का फ़ायदा?

बीजेपी के एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिशों का ज़िक्र करते हुए टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार सिंह पार्टी की बदलती नीति को उसकी सफलता की वजह मानते हैं.

वह कहते हैं, “मंडल की राजनीति ओबीसी की राजनीति है, पहले जो कमंडल की राजनीति थी वो सवर्णों की थी. लेकिन बीजेपी के अंदर में बहुत बड़ा बदलाव हुआ है. बीजेपी के नेतृत्व में ओबीसी के लोग हैं. बीजेपी इसे ख़ासतौर पर बढ़ावा दे रही है. इसे कमंडल की राजनीति के साथ वो अडजस्ट करने की कोशिश कर रही है. इसका लाभ उसे हिंदी पट्टी में मिला है.”

“मोदी ओबीसी समुदाय से आते हैं, लेकिन वह अगड़ों के बीच भी लोकप्रिय हैं. क्योंकि अगड़ी जातियों को जो चीज़ अपील कर रही थी वह हिंदुत्व थी. ओबीसी पार्टी के अंदर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. मध्य प्रदेश में अभी ही ओबीसी सीएम नहीं चुने गए बल्कि शिवराज सिंह भी ओबीसी ही थे.”

इसी बदलाव को रेखांकित करते हुए पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, “बीजेपी ने अपने नेतृत्व में काफ़ी परिवर्तन किया है, जिसकी वजह से ओबीसी समुदाय में उसकी पैठ बढ़ी है और उनके पास अगड़ी जातियों का एक स्थायी वोट बैंक है ही. कुल मिलाकर एक विजयी फ़ॉर्मूला मिल गया है. उनका 40 से 45 फ़ीसदी वोट बैंक तो कहीं नहीं जा रहा.”

मध्य प्रदेश हो या राजस्थान या फिर छत्तीसगढ़. तीनों जगह चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई थी. लेकिन इन राज्यों में विपक्ष का उठाया जाति का मुद्दा रंग नहीं लाया.

शिवानंद तिवारी इसकी वजह कांग्रेस के रुख़ में अस्पष्टता को भी मानते हैं.

वे कहते हैं, “मध्य प्रदेश का चुनाव हुआ. सबको लग रहा था कि कांग्रेस आसानी से बहुमत पा लेगी. लेकिन ये कमलनाथ बागेश्वर बाबा की आरती उतार रहे हैं. ये नरम हिंदुत्व क्या है? उनके यहाँ आप चार्टर्ड प्लेन से गए. इसके बाद उनकी आरती उतारी. ऐसे में क्या मुक़ाबला करेंगे आप भारतीय जनता पार्टी का? जब कांग्रेस को मुस्लिमों के साथ हमदर्दी रखने वाली पार्टी माना जाने लगा, तो राहुल गांधी को जनेऊ पहना दिया गया. कोई स्पष्टता है ही नहीं.”

विपक्ष के पास बीजेपी के इस विजय रथ को रोकने का क्या कोई फ़ॉर्मूला है?

इस पर कपिश श्रीवास्तव कहते हैं, “कहीं कोई जीत रहा है तो उस जीत में हर समुदाय का योगदान है. जब भी कोई पूर्ण बहुमत की सरकार बनती है, तो हर समुदाय वोट देता है. हाँ, ये ज़रूर है कि ‘इंडिया’ के गठन के बाद अगर हम सब दलों ने मिलकर इन पाँच राज्यों में भी चुनाव लड़ा होता, तो आज नतीजे कुछ और होते.”

वहीं, एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट, पटना के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर का भी मानना है कि कांग्रेस को बेरोज़गारी, ग़रीबी जैसे बुनियादी मुद्दों पर टिके रहना चाहिए. इसी से आगे का रास्ता तय होगा.

वह कहते हैं, “राहुल गांधी अगर पिछड़ी जातियों की राजनीति करेंगे तो नहीं चलेगा. अगर यही बात लालू प्रसाद यादव कहकर आए होते तो असर पड़ता. फ़र्क है. पिछड़ी जातियों की राजनीति करनी होगी और आप अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव की बात नहीं करेंगे तो नहीं होगा. जनता अपना आइकन खोजती है और राहुल गांधी पिछड़ी जातियों के आइकन नहीं हैं. इसीलिए मध्य प्रदेश में कांग्रेस का दांव नहीं चला.”

बीजेपी के नेतृत्व में पिछड़े समुदाय की भागीदारी बढ़ी है लेकिन पार्टी की राजनीति अभी भी हिंदुत्व आधारित ही है. तो क्या ये माना जाए कि बीजेपी ने मंडल की राजनीति करने वालों के हाथ में ही कमंडल दे दिया है?

इसपर डीएन दिवाकर कहते हैं, “पहले भी बीजेपी ने दलित-आदिवासियों के बीच में भी उन्होंने हिंदुत्व के मुद्दे पर काम किया है. लेकिन वो मंडल की राजनीति नहीं थी, वो कमंडल का ही विस्तार है. आज भी बीजेपी अपनी कमंडल की राजनीति को उन जगहों तक ले जा रही है जहाँ पर मंडल की राजनीति होती है.”

वे कहते हैं, “बीजेपी मंडल और कमंडल की राजनीति नहीं कर रही बल्कि मंडल का कमंडलीकरण कर रही है. कमंडल का विस्तार करने के लिए जो भी पार्टी को करना पड़ता है वह करती है.”

विधानसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए भले ही उत्साहजनक रहे हों, लेकिन क्या लोकसभा चुनाव में स्थिति यही रहेगी या विपक्षी गठबंधन बीजेपी का कोई काट निकाल पाएँगे, ये देखने वाली बात होगी.

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